विनय-पत्रिका १५८ रहता है।॥ २॥ यद्यपि गङ्गाजी देवनदी कहाती है और बड़ी पवित्र हैं, तीनों लोकोंमें उनका बड़ा यश भी फैल रहा है, परन्तु भगवच्च- रणोंसे अलग होनेपर तबसे आजतक उनका भी नित्य वहना कभी बंद नहीं होता ।।३॥ श्रीरघुनाथजीके भजन बिना विपत्तियोंका नाश नहीं होता। इस सिद्धान्तका सन्देह वेदोंने नष्ट कर दिया है। इसलिये हे तुलसीदास ! सब प्रकारकी आशा छोडकर श्रीरामका दास बन जा ॥४॥ [ ८८ ] कबहूँ मन विश्राम न मान्यो। निसिदिन भ्रमन बिसारि सहज सुख, जहँ तहँ इंद्रिन तान्यो। जदपि विषय-सँग सहो दुसह दुख, विषम जाल अरुझान्यो। तदपि न तजत मूढ़ ममतावस, जानतहूँ नहिं जान्यो ॥२॥ जनम अनेक किये नाना विधि करम-कीच चित सान्यो । होइ न विमल विवेक-नीर विनु, वेद पुरान वखान्यो ॥३॥ निज हित नाथ पिता गुरु-हरिसों हरपि हृदै नहिं आन्यो। तुलसिदास कव तृषा जाय सर खनतहि जनम सिरान्यो ॥४॥ भावार्थ-अरे मन ! तूने कभी विश्राम नहीं लिया। अपना सहज सुखस्वरूप भूलकर दिन-रात इन्द्रियोंका खींचा हुआ जहाँ-तहाँ विषयोंमें भटक रहा है।॥ १॥ यद्यपि विषयोंके सगसे तूने असह्य सकट सहे हैं और तू कठिन जालमें फंस गया है तो भी हे मूर्ख ! तू ममताके अधीन होकर उन्हें नहीं छोडता । इस प्रकार सब कुछ समझकर भी बेसमझ हो रहा है॥ २॥अनेक जन्मों में नाना प्रकार- के कर्म करके तू उन्हींके कीचड़में सन गया है, हे चित्त ! विवेक-
पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/१५५
दिखावट