पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/१५६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१५९ विनय-पत्रिका रूपी जल प्राप्त किये बिना यह कीचड़ कभी साफ नहीं हो सकता। ऐसा वेद-पुराण कहते हैं ॥ ३॥ अपना कल्याण तो परम प्रभु, परम पिता और परम गुरुरूप हरिसे है, पर तूने उनको हुलसकर हृदयमें कभी धारण नहीं किया, ( दिन-रात विषयोंके बटोरने में ही लगा रहा ) हे तुलसीदास ! ऐसे तालाबसे कब प्यास मिट सकती है, जिसके खोदने में ही सारा जीवन बीत गया ॥ ४ ॥ [८९] मेरो मन हरिजू ! हठ न तजै। निलिदिन नाथ देउँ लिख बहु विधि, करत सुभाउ निजे ॥१॥ ज्यो जुवती अनुभवति प्रसव अति दारुन दुख उपजै । है अनुकूल विसारि सूल सठ पुनि खल पतिहिं भजे ॥२॥ लोलुप भ्रम गृहपसु ज्यों जहँ तहँ सिर पदत्रान बजे। तदपि अधम विचरत तेहि मारग कबहुँ न मूढ़ लजै ॥३॥ हौं हारयो करि जतन बिबिध बिधि अतिसै प्रबल अजै । तुलसिदास बस होइ तर्हि जब प्रेरक प्रभु बरजै ॥ ४॥ भावार्थ-हे श्रीहरि ! मेरा मन हठ नहीं छोड़ता। हे नाथ ! मैं दिन-रात इसे अनेक प्रकारसे समझाता हूँ, पर यह अपने ही खभावके अनुसार करता है ॥ १ ॥ जैसे युवती स्त्री सन्तान जनने- के समय अत्यन्त असह्य कष्टका अनुभव करती है ( उस समय सोचती है कि अब पतिके पास नहीं जाऊँगी ) परन्तु वह मूर्खा सारी वेदनाको भूलकर पुनः उसी दुःख देनेवाले पतिका सेवन करती है ॥ २॥ जैसे लालची कुत्ता जहाँ जाता है वहीं , उसके सिर जूते पड़ते हैं तो भी वह नीच फिर उसी रास्ते भटकता है,