पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/१५८

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१६३ विनय-पत्रिका सकते॥१॥पतंगने सुन्दर रूपके वश हो दीपकको अग्नि नहीं समझा और मछलीने आहारके वश हो लोहेको काँटा नहीं जाना, परन्तु मैं तो विषयोंको प्रत्यक्ष विपत्तिरूप देखकर भी नहीं छोड़ता हूँ ( अतएव मैं उनसे अधिक मूर्ख हूँ)॥२॥ महामोहरूपी अपार नदीमें निरन्तर बहता फिरता हूँ। (इससे पार होनेके लिये) श्रीहरिके चरण-कमल- रूपी नौकाको तजकर बार-बार फेनोंको ( अर्थात् क्षणभंगुर भोगोंको) पकड़ता हूँ॥३॥ जैसे बहुत भूखा कुत्ता पुरानी सूखी हड्डीको मुँहमें भरकर पकड़ता है और अपने तालमे रगड़ लगनेसे जो खून निकलता है, उसे चाटकर बड़ा सन्तुष्ट होता है (यह नहीं समझता कि यह रक्त तो मेरे ही शरीरका है। यही हाल मेरा है)॥४॥ मैं संसाररूपी परम कठिन सर्पके डसनेसे अत्यन्त ही भयभीत हो रहा हूँ, परन्तु (मूर्खता यह है कि उससे बचनेके लिये ) गरुड़गामी भगवान्के शरणागत न होकर (विषयरूपी ) मेढककी शरणसे अभय चाहता हूँ॥५॥ जैसे जलमें रहनेवाले जीवोंके समूह सिमट-सिमटकर जालमें इकट्ठे हो जाते हैं और लोभवश एक दूसरेको खाते हैं, अपना भावी नाश नहीं देखते (वैसी ही दशा मेरी है)॥६॥ यदि सरस्वतीजीअनेक युगोंतक मेरे पापोको गिनती रहे तब भी उनका अन्त नहीं पा सकतीं। मेरे मनमें तो यही भरोसा है कि मेरे नाथ पतित-पावन हैं ( मुझ पतितको भी अवश्य अपनाचेंगे ) ॥ ७॥ [९३] कृपा सो धौं कहाँ बिसारी राम । जेहि करना सुनि श्रवन दीन-दुख,धावत हो तजि धाम॥१॥