पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/१७९

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१८४ विनय-पत्रिका फिर मुझपर दया क्यों नहीं करते । आपदैहिक, दैविक, भौतिक-तीनों प्रकारके तापोंके और सन्देह, शोक, अज्ञान तथा भयके नाश करने- वाले है (मेरे भी दुःख, ताप और अज्ञान आदिका नाश कीजिये)॥१॥ एक तो कलिकालसे उत्पन्न होनेवाले पापोंसे मेरी बुद्धि मन्द पड़ गयी है और मन मलिन हो गया है, तिसपर फिर हे स्वामी आप भी मेरी सँभाल नहीं करते। तब इस दासका जीवन कैसे निभेगा १ ॥२॥ हे प्रभो ! आप तो सब प्रकारसे समर्थ हैं और मैं सब प्रकारसे दीन हूँ। यह जानकर भी आप मुझपर कृपा नहीं करते, इससे मालूम होता है कि मैं भाग्यहीन ही हूँ॥३॥ हेरघुनाथजी! मैं अनेक योनियों में भटक आया हूँ, परन्तु आपके सिवा मेरे दूसरा कोई स्वामी नहीं है । दुःख- सुख सहता हुआ भी मैं सदा आपकी ही शरण हूँ॥ ४ ॥ मैं अपने मनमें तो इस बातको खूब समझता हूँ कि आपके समान दूसरा कोई भी दयालु देव नहीं है, परन्तु हे हरे ! आपको प्रसन्न करनेवाले साधन इस तुलसीदासके पास नहीं हैं ( बिना ही साधन केवल शरणा- गतिसे ही आपको प्रसन्न होना पडेगा)॥ ५॥ [११०] कहु केहि कहिय कृपानिधे ! भव-जनित विपति अति । इंद्रिय सकल विकल सदा, निज निज सुभाउ रति ॥१॥ जे सुख-संपति, सरग-नरक संतत सँग लागी। हरि ! परिहरि सोइ जतन करत मन मोर अभागी ॥२॥ मै अति दीन, दयालु देव सुनि मन अनुरागे। जो न द्रवहु रघुवीर धीर, दुख काहे न लागे ॥३॥ जद्यपि मैं अपराध-भवन, दुख-समन मुरारे । तुलसिदास कहें आस यहै वहु पतित उधारे ॥४॥