विनय-पत्रिका
भावार्थ-हे कृपानिधान ! इस संसार-जनित भारी विपत्तिका
दुखड़ा आपको छोड़कर और किसके सामने रोऊँ ? इन्द्रियाँ तो सब
अपने-अपने विषयों में आसक्त होकर उनके लिये व्याकुल हो रही हैं॥१॥
ये तो सदा सुख-सम्पत्ति और वर्ग-नरककी उलझनमें फंसी रहती
ही हैं, पर हे हरे ! मेरा यह अभागा मन भी आपको छोड़कर इन
इन्द्रियोंका ही साथ दे रहा है ॥ २॥ हे देव ! मैं अत्यन्त दीन-दुखी हूँ-
आपका दयाल नाम सुनकर मैंने आपमे मन लगाया है। इतनेपर भी
हे रघुवीर ! हे धीर ! यदि आप मुझपर दया नहीं करते तो मुझे कैसे
दु.ख नहीं होगा १ ॥ ३॥ अवश्य ही मैं अपराधोंका घर हूँ परन्तु हे
मुरारे ! आप तो (अपराधका विचार न करके) दुःखोंका नाश ही
करनेवाले है । मुझ तुलसीदासको आपसे सदा यही आशा है, क्योंकि
आप अबतक अनेक पतितों ( अपराधियों) का उद्धार कर चुके हैं
( इसलिये अब मेरा भी अवश्य करेंगे)॥ ४
[१११]
केशव! कहि न जाइ का कहिये।
देखत तव रचना विचित्र हरि! समुझि मनहिं मन रहिये ॥१॥
सून्य भीतिपर चित्र, रंग नहि, तनु बिनु लिखा चितेरे।
धोये मिटइ न मरइ भीति, दुख पाइअ एहि तनु हेरे ॥२॥
रविकर-नीर वस अति दारुन मकर रूप तेहि माहीं।
बदन-हीन सो ग्रसै चराचर, पान करन जे जाहीं ॥३॥
कोउ कह सत्य, झूठ कह कोऊ, जुगल प्रबल कोउ मान ।
तुलसिदास परिहरै तीन भ्रम,सजो आपन पहिचान ॥ ४॥
भावार्थ-हे केशव ! क्या कहूँ? कुछ कहा नहीं जाता। हे हरे !
पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/१८०
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