१९० विनय-पत्रिका वाला, दीन-दुखियोंके हितार्थ सब कुछ त्याग करनेवाला खामी कोई दूसरा नहीं है । भाव यह है कि दीनोंके दुःख दूर करनेके लिये ही तुम वैकुण्ठ या सच्चिदानन्दघनरूप छोड़कर धराधाममे मानवरूपमें अवतीर्ण होते हो, इससे अधिक त्याग और क्या होगा ? इतनेपर भी मैं दुःख और शोकसेव्याकुल हो रहा हूँ। हे कृपालो! किस कारण तुमको मुझपर दया नहीं आती १ ॥२॥ मैं यह मानता हूँ कि इसमें तुम्हारा कुछ भी दोष नहीं है, सब मेरा ही अपराध है। क्योंकि तुमने मुझे जो ज्ञानका भण्डार यह मनुष्य-शरीर दिया, उसे पाकर भी मैंने तुम-सरीखे प्रभुको आजतक नहीं पहचाना ॥ ३॥ बाँस चन्दनको और करील बसन्तको वृथा ही दोष देते हैं, असलमे दोनों हतभाग्य हैं । बाँसमें सार ही नहीं है, तब बेचारा चन्दन उसमे सुगन्ध कहाँसे भर दे ? इसी प्रकार करीलमें पत्ते नहीं होते फिर बसन्त उसे कैसे हरा-भरा कर देगा ( वैसे ही मैं विवेकहीन और भक्तिशून्य कैसे तुमपर दोष लगा सकता हूँ?)॥४॥ हे हरे! मैं सब प्रकार कठोर हूँ, पर तुम तो कोमल खभाववाले हो; मैंने अपने मनमें यह निश्चयरूपसे विचार कर लिया है कि हे प्रभो ! इस तुलसीदासकी मोहरूपी वेडी तुम्हारे ही छुडानेसे छूट सकेगी, अन्यथा नहीं ॥ ५॥ [११५]. माधव ! मोह-फाँस क्यों इट। वाहिर कोटिः उपाय करिय, अभ्यंतर ग्रन्थि न छूट ॥६॥ घृतपूरन कराह अंतरगत ससि-प्रतिक्वि दिखावै। इंधन अनल लगाय कलपसत, औटत नास न पावै ॥२॥
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