पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/१८७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

विनय-पत्रिका १९२ [११६] माधव ! असि तुम्हारि यह माया। करि उपायपचिमरियातरिय नहि,जव लगिकरहुन दाया ॥१॥ सुनिय, गुनिय, समुझिय, समुझाइय, दसाहृदयनहिं आवै। जेहि अनुभव विनु मोहजनित भव दारुन विपति सतावै ॥२॥ ब्रह्म-पियूष मधुर सीतल जो पै मन सो रस पावै। तौ कत मृगजल रूप विषय कारन निसि-चासर धावै ॥ ३॥ जेहिके भवन बिमल चिंतामनि, सो कत काँच बटोरे। सपने परवस परै जागि देखत केहि जाइ निहोरै ॥४॥ ग्यान-भगति साधन अनेक, सब सत्य झूठ कछु नाहीं। तुलसिदास हरि-कृपा मिटे भ्रम, यह भरोस मनमाहीं ॥५॥ भावार्थ-हे माधव | तुम्हारी यह माया ऐसी (दुस्तर) है कि कितने ही उपाय करके पच मरो, पर जबतक तुम दया नहीं करते तबतक इससे पार पा जाना असम्भव ही है।॥ १॥ सुनता हूँ, विचारता हूँ, समझता हूँ तथा दूसरोंको समझाता हूँ, पर तुम्हारी इस मायाका यथार्थ रहस्य समझमें नहीं आता और जबतक इसके वास्तविक रहस्यका अनुभव नहीं होता, तबतक मोहजनित संसारकी महान् विपत्तियाँ दुःख देती ही रहेंगी॥२॥ ब्रह्मामृत बड़ा ही मधुर और शान्तिकर है, यदि मनको वह अमृतरस कहीं चखनेको मिल जाय, तो फिर यह विषयरूपी झूठे मृगजलके लिये क्यों रात-दिन भटकता फिरे ॥ ३ ॥ जिसके घरमें ही निर्मल चिन्तामणि विद्यमान है, वह काँच क्यों बटोरेगा? भाव यह कि जिसे ब्रह्मानन्द प्राप्त हो गया, वह मायिक विषयानन्दकी ओर क्यों ताकने लगा जैसे कोई सपनेमें किसीके पराधीन हो जाय