सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/२०४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२०९ विनय-पत्रिका कर्म करना पड़ता हैपरन्तु, श्रीराम-नामकी महिमाकी चर्चा आरम्भ होते ही ये सब दब जाते हैं, इनका कोई प्रभाव नहीं रह जाता (इसलिये राम-नामका जप कर ) ॥ ३॥ लोग बिना ही साधनोंके सारी सिद्धियाँ पानेके लिये व्याकुल हैं। पर यह कब सम्भव है ? हाँ, कलियुगका ढेर-का-देर बनिज-व्यापार, माल-मत्ता नाम-नगरमें खप जाता है अर्थात् कलियुगका पाप-समूह राम-नामके प्रतापसे नष्ट हो जाता है।॥ ४ ॥ नापमे विश्वास और प्रेम करनेसे हृदय भलीभाँति स्थिर- शान्त हो जाता है। रामजीके नामने रावण-सरीखे शत्रु और तुलसी- सरीखे पतितको भी पावन कर दिया है ॥ ५॥ [१३१] पावन प्रेम राम-चरन-कमल जनम लाहु परम । रामनाम लेत होत, सुलभ सकल धरम ॥१॥ जोग, मख, विवेक, विरत, वेद-विदित करम । करिवे कहँ कटु कठोर सुनत मधुर, नरम ॥२॥ तुलसी सुनि, जानि-बूझि, भूलहि जनि भरम । तेहि प्रभुको होहि, जाहि सब ही की सरम ॥ ३॥ भावार्थ-श्रीरामचन्द्रजीके चरणकमलों में विशुद्ध ( निष्काम ) प्रेमका होना ही जीवनका परम फल है। राम-नाम लेते ही सारे धर्म सुलभ हो जाते हैं ॥ १ ॥ वैसे तो योग, यज्ञ, विवेक, वैराग्य आदि अनेक कर्म वेदोंमें बनलाये गये हैं, जो सुनने में तो बडे ही मधुर और कोमल जान पड़ते हैं, परन्तु करनेमें बड़े ही कटु और कठोर हैं ॥२॥ इसलिये,हे तुलसीदास!सुन और जान-बूझकर इस भ्रममे मत भूल, तूतो उस प्रभुकाही (दास) हो जा, जिसेसबझी लाज है ॥३॥ वि० ५०१४-