सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/२०७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

४ विनय-पत्रिका २१२ [ १३४] ताते हो बार बार देव ! द्वार परि पुकार करत । आरति, नति, दीनता कहें प्रभु संकट हरत ॥१॥ लोकपाल लोक-विकल रावन-डर डरत । का सुनि सकुचे कृपालु नर-सरीर धरत ॥ २॥ कोसिक, मुनि-तीय, जनक सोच-अनल जरत । साधन केहि सीनल भये, सो न समुझि परत ॥३॥ केवट, खग, सवरि सहज चरनकमल न रत। सनमुख तोहिं होत नाथ ! कुतर सुफरु फरत ॥ ४॥ चंधु-बैर कपि-विभीषन गुरु गलानि गरत । सेवा केहि रोझि राम, किये सरिस भरत ॥ ५॥ सेवक भयो पवनपूत साहिव अनुहरत । ताको लिये नाम राम सवको सुढर ढरत ॥ ६॥ जाने बिनु राम रीति पचि पचि जग मरत । परिहरि छल सरन गये तुलसिहु-से तरत ॥ ७ ॥ भावार्थ-हे नाथ ! मैं तुम्हारे इसी स्वभावको जानकर द्वारपर पड़ा हुआ बार-बार पुकार रहा हूँ कि हे प्रभो ! तुम दुःख, नम्रता और दीनता सुनाते ही सारे सकट हर लेते हो ॥१॥ जब रावणके भयके मारे इन्द्र, कुबेर आदि लोकपाल डरकर शोकसे व्याकुल हो गये थे, तब हे कृपालु ! तुमने क्या सुनकर संकोचसे नरशरीर धारण किया था ॥२॥ यह समझने नहीं आता कि जो विश्वामित्र, अहल्या और जनक चिन्ताकी अग्निमें जले जा रहे थे, वे किस साधनसे शीतल हो गये ॥ ३ ॥ गुह निषाद, पक्षी ( जटायु ),