पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/२०८

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२१३ विनय-पत्रिका शबरी आदि स्वभावसे ही तुम्हारे चरण-कमलों में रत नहीं थे; किन्तु हे नाथ ! तुम्हारे सामने आते ही (इन) बुरे-बुरे वृक्षोंमें भी अच्छे- अच्छे फल फल गये। भाव यह कि निषाद, शबरी आदि पापी भी तुम्हारी शरणागतिसे तर गये॥ ४॥ अपने अपने भाईके साथ शत्रुता करनेसे सुग्रीव और विभीषण बड़े भारी दुःखसे गले जाते थे। हे रामजी ! तुमने किस सेवासे रीझकर उन्हें भरतजीके समान मान लिया ॥५॥ हनुमान्जी तुम्हारी सेवा करते-करते तुम्हारे ही समान हो गये। हे रामजी ! उन (हनुमानजी) का नाम लेते ही तुम सबपर भलीभाँति प्रसन्न हो जाते हो ॥ ६॥ (यह सब क्यों हुआ? दुःख, नम्रता और दीनताके कारण ही तुमने ऐसा किया) इसलिये हे नाथ ! तुम्हारी (रीझनेकी ) रीति न जाननेके कारण ही जगत् अन्यान्य साधनोंमें पच-पचकर मर रहा है। तुम दुखियों, नम्रों और दीनोंपर प्रसन्न होते हो-यह जानकर जो तुम्हारी शरण हो जाय वह तो तर ही जाता है, क्योंकि कपट छोड़कर तुम्हारी शरणमें जानेसे तुलसी-जैसे जीव भी तो ससार सागरसे तर गये ॥ ७॥ राग सूहो बिलावल [१३५] राम सनेही सों तें न सनेह कियो। अगम जो अमरनि हूँ सो तनु तोहिं दियो। दियो सुकुल जनम, सरीर सुंदर, हेतु जो फल चारिको। जो पाइ पडित परमपद, पावत पुरारि-भुरारिको॥ यह भरतखंड, समीप सुरसरि, थल भलो, संगतिभली । तेरीकुमति कायर! कलप-बल्लीचहति है बिष फलभली॥१॥

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