पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/२३३

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विनय-पत्रिका २२४ कहीं कोई शुभ कर्म बन गया है तो उसे जनाता फिरता हूँ॥७॥ ब्राह्मणोंके साथ द्रोह करना तो मानो मेरे हिस्सेमें ही आ गया है। जबरदस्ती ही सबसे वैर वढाता हूँ। इतना (बुद्धिभ्रष्ट ) होनेपर भी मैं सब संतोंके बीच वैठकर अपनी बुद्धिके विलासको गिनाता हूँ ( उनमें उत्तम ज्ञानी संत बनता हूँ ॥ ८॥ चारों वेद, शेषनाग और शारदा आदिका निहोरा करके उनसे यदि मैं अपने दोषोंका बखान कराऊँ, तव भी हे प्रभो ! मेरे वे दोष सौ कल्पतक समाप्त न होंगे। फिर, भला मैं एक मुखसे उनका कहाँतक वर्णन करूँ॥ ९॥ यदि मैं अपनी करनीपर विचार करूँ तोक्या मैं आपकी शरणमें आनेका साहस भी कर सकूँ ? परन्तु श्रीरामजीका बड़ा ही कोमल स्वभाव और असीम शील है, इसी बातका बल मनको दिखाता रहता हूँ॥ १०॥ हे प्रभो ! इस तुलसीदासके पास ऐसा एक भी गुण नहीं है, जिससे स्वप्नमे भी आपको रिझा सके। किन्तु हेनाथ ! आपकी कृपाके आगे यह ससार-सागर गायके खुरके समान है। यह जानकर जीमें संतोष कर लेता हूँ (कि आपकी कृपासे मैं विपरीत आचरणवाला होनेपर भी ससार-समुद्रसे सहज हीतर जाऊँगा)॥११॥ [१४३] सुनहु राम रघुवीर गुसाई मन अनीति-रत मेरो। चरन-सरोज विसारि तिहारे, निसिदिन फिरत अनेरो॥ १ ॥ मानत नाहिं निगम-अनुसासन, त्रास न काहू केरो। भूल्यो सूल करम-कोलुन्ह तिल ज्यों वहु वारनि पेरो॥ २ ॥ जह सतसंग कथा माधवकी, सपनेहुँ करत न फेरो। लोभ-मोह-मद-काम-कोह-रत, तिन्हसों प्रेम घनेरो॥ ३॥