२३७ विनय-पत्रिका तुलसिदास प्रभुसोगुन नहि, जेहि सपनेहुँ तुमहिं रिझावी । नाथ-कृपा भवसिंधु धेनुपद सम जो जानि सिरावौ ॥ ११ ॥ भावार्थ-हे कृपानिधि रामजी ! मुझे बड़ा संकोच हो रहा है, मैं किस प्रकार आपको अपनी विनती सुनाऊँ ? जो कुछ भी मै करता हूँ, सोसभी धर्मके विरुद्ध होता है। फिर नाथ! आपको मैं क्यों अच्छा लगने लगा ॥१॥ यद्यपि मैं यह जानता हूँ कि सम्पूर्ण जड़-चेतन भगवान् श्रीहरिका ही रूप है; पर मैं उस हरिस्वरूपको भूलकर भी नहीं देखता । मै तो अपने नेत्ररूपी पतगोको कामिनीरूपी अग्निकी शिखामें (जलनेके लिये ) भेजता हूँ॥२॥ मैं यह समझता हूँ और दूसरोंको भी समझाता हूँ कि कानोंकी सार्थकता तो आपकी कथा सुननेमें ही है। परन्तु मैं तो उन कानोंसे सदा दूसरोंके दोष सुन-सुनकर, उन्हें हृदयमें भरता और सतप्त होता हूँ ॥ ३॥ जिस जीभसे आपके गुणानुवाद गाकर बिना ही परिश्रमके परम सुख प्राप्त कर सकता हूँ उस मुखसे (जीभसे ) मेढककी नाई दूसरोंकी निन्दाऍ रटरटकर अपना जन्म खो रहा हूँ॥ ४ ॥ मैं यह बात सबको सिखाता फिरता हूँ कि 'हृदयको अत्यन्त शुद्ध कर लो, तभी उसमें भगवान् श्रीहरि विराजेंगे। किन्तु मैं स्वयं अपने हृदयमें अभिमान, मोह और मद आदि दुष्टोंकी मण्डलीको बसाता हूँ ॥ ५॥ जिस दुर्लभ मनुष्य-शरीरको धारण कर भक्तजन भगवान के परमपदको प्राप्त करनेकी साधना करते हैं, मैं उसे व्यर्थ ही खो रहा हूँ। घरमें सोनेके घडोंमें अमृत भरा रक्खा है, , पर उसे छोड़कर आकाशमें कुओं खुदवाता हूँ ॥ ६ ॥ मनसे, कर्मसे और वचनसे मैंने जो पाप किये हैं, उन्हें तो मैं यत्न कर-कर बडे जतनसे छिपाता हूँ। और यदि दूसरोंकी प्रेरणासे अयवा ईयावश
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