पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/२४१

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विनय-पत्रिका कि हे महाराज ! अपनी जांच उपाइनेसे अपनेको ही लाज टती है॥१॥ यह काम, क्रोध, लोभ आदिसायी मिले भी रहते हैं और मारना भी चाहते हैं, ऐसे दुष्ट हैं । ये मेरे बिना रहते भी नहीं और हर करके मेरी ही छाती जलाते हैं। भाव यह कि अपने ही बनकर मारते हैं ॥ २ ॥ ये मेरे हृदयमें बसते हैं, मैने ऐसा समझकर प्रेमपूर्वक इन सबकी रुचि भी पूरी कर दी है, अर्थात् सब विषय भोग चुका है। फिर भी इन दुष्टों और कुचालियोंने मुझे कन्यक (जादूगर)की लकड़ीवना रक्खा है (लकडीके इशारेसेजैसे नाच नचाते हैं, वैसे ही ये मुझे नचाते हैं)॥ ३॥ ऐसीअपनायत (आत्मीयता) तो आजतक मैंने कहीं भी नहीं देखी-सुनी। कर्म तो करेंसब आप, और जो कुछ बुराई हो, वह मेरे सिर आवे ॥१॥ मुझे ये सब बडे ही अन्यायी दीखते हैं, पर छोड़े नही जाते । बड़े ही असमन्जसमें पड़ा हुआ हूँ। अब हाय पकड़कर आपही निकालिये (नहीं तो, अपने-से बने हुए ये मुझे मारकर ही छोड़ेंगे)॥५॥ आपकी बलैया लेता हूँ, कृपाकर एक बार अपने इस दासका यह कौतुकता देखिये आपके देखते ही तुलसीका दुःख सहज ही दूर हो जायगा ॥६॥ [१४८] कहीं कौन मुँह लाइ के रघुवीर गुसाई। सकुचत समुझत आपनी सब साइँ दुहाई ॥१॥ सेवत वस, सुमिरत सखा, सरनागत सो हो। गुनगन सीतानाथके चित करत न हो हो॥२॥ कपासिंध वंधु दीनके आरत-हितकारी। प्रनत-पाल विरुदावली सुनि जानि बिसारी ॥३॥ से न घेइन सुमिरि के पद-प्रीति सुधारी । पाह सुसाहिव राम सो, भरि पेट विगारी॥५॥