२४७ विनय-पत्रिका नाथ गरीवनिवाज हैं, मैं गही न गरीबी। तुलसी प्रभु निज ओर ने बनि परै सो कीबी ॥५॥ भावार्थ-हे रघुवीर ! हे खामी! कौन-सा मुँह लेकर आपसे कुछ कहूँ? खामीकी दुहाई है, जब मैं अपनी करनीपर विचार करता हूँ तब संकोचके मारे चुप हो रहता हूँ॥१॥ सेवा करनेसे वशमें हो जाते हैं, स्मरण करनेसे मित्र बन जाते हैं और शरणमें आनेसे सामने प्रकट हो जाते हैं। ऐसे आप श्रीसीतानाथजीके गुण-समूहपर भी मैं ध्यान नहीं देता॥२॥ आप कृपाके समुद्र हैं, दीनोंके बन्धु हैं, दुखियोंके हितू हैं और शरणागतोंके पालनेवाले हैं, आपकी ऐसी विरदावली सुनकर और जानकर भी मैं भूल गया हूँ॥ ३ ॥ मैंने न तो सेवा ही की और न ध्यान ही किया । स्मरण करके आपके चरणोंमें सच्चा प्रेम भी नहीं किया। आप-सरीखे श्रेष्ठ खामीको पाकर भी मैंने आपके साथ भरपेट बिगाड़ ही किया ॥४॥ आप गरीबोंपर कृपा करनेवाले हैं, पर मैंने गरीबी धारण नहीं की। (अतएव मेरी ओर देखनेसे तो कुछ भी नहीं होगा), अबहे नाथ ! अपनी ओर देखकर ही जो आपसे बन पडे सो कीजिये ॥५॥ कहाँ जाउँ, कासों कहाँ, और ठौर न मेरे। जनम गवायो तेरे ही द्वार किंकर तेरे ॥१॥ मैं तो विगारी नाथ सों आरतिके लीन्हें । तोहि कृपानिधि क्यों बनै मेरी-सी कीन्हें ॥२॥ दिन-दुरदिन दिन-दुरदसा, दिन-दुख दिन-दूषन । जव लौं तू न विलोकिहै रघुवंस-विभूषन ॥ ३॥ दई पीठ बिनु डीठ में तुम बिख-बिलोचन ।
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