पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/२४५

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२५० विनय-पत्रिका मेरे हृदयमें यही बड़ी ग्लानि हो रही है और इसीको मैं हानि समझता हूँ कि, मैं हूँ तो दुष्ट और बुरा सेवक, नमकहराम नौकर, पर बातें कर रहा हूँ सच्चे सेवक-जैसी । भाव यह है कि मेरा यह दम्भ आप सर्वज्ञके सामने कैसे छिप सकता है ॥३॥ परन्तु भला हूँ या बुरा, सब स्त्री-पुरुष मुझे कहते तो रामका ही हैं न ? सेवक और कुत्तेके बिगड़नेसे खामीके सिर ही गालियाँ पडती हैं। भाव यह कि यदि मैं बुराई करूँगा, तो लोग आपको ही बुरा कहेंगे ॥ ४॥ मुझे यह उपाय भी नहीं सूझ रहा है, कि जिससे चित्तका यह असमंजस मिटे अर्थात् मेरी नीचता दूर हो जाय और आपको भी कोई भला-बुरा न कहे । अब हे दीनबन्धु ! जो आपको उचित जान पड़े और जो बन सके, वही ( मेरे लिये) कीजिये ॥५॥ तनिक अपनी विरदा- _वलीकी ओर तो देखिये । मैं उन्हींमें कोई हूँगा । (भाव यह कि आप दीनबन्धु हैं, तो क्या मैं दीन नहीं हूँ, आप पतित-पावन हैं तो क्या मैं पतित नहीं हूँ, आप प्रणतपाल हैं, तो क्या मैं प्रणत नहीं हूँ इनमें से कुछ भी तो हूँगा।) ( इतनेपर भी ) यदि स्वामी इस तुलसीको छोड देंगे, तो भी यह उन्हींके सामने शरणमें जाकर पड़ा रहेगा । ( आपको छोडकर कहीं जा नहीं सकता) ॥ ६॥ [१५१ ] जो पै चेराई रामकी करतो न लजातो। तो तू दाम कुदाम ज्यो कर-कर न विकातो॥१॥ जपत जीह रघुनाथको नाम नहि अलसातो। बाजीगरके सूम ज्यो खल खेह न खातो ॥ २॥ जौ तु मन ! मेरे कहे राम-नाम कमातो।