पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/२४४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२४९ विनय-पत्रिका राम-नामकी ओट ले ली वह (जन्म-मरणके चक्रसे) बच गया ॥६॥ हे राम ! तेरी रहन-सहन सदा मेरे हृदय में हुलस रही है, तेरा शील- खभाव विचारकर मैं मन-ही-मन बडा प्रसन्न हो रहा हूँ, कि अब मेरी सारी करनी वन जायगी । बस, यह तुलसी तेरा है, जिस तरह हो, उसी तरह इसपर कृपा कर ॥ ७ ॥ [१५०] रामभद्र ! मोहिं आपनो सोच है अरु नाहीं। जीव सकल संतापके भाजन जग माहीं॥१॥ नातो बड़े समर्थ सों इक ओर किधौं हूँ। तोको मोसे अति घने मोको एकै हूँ॥२॥ वड़ी गलानि हिय हानि है सर्बग्य गुसाई। कूर कुसेवक कहत हौं सेवककी नाई ॥३॥ भलो पोच रामको कहैं मोहि सब नरनारी। विगरे सेवक खान ज्यों साहिब-सिर गारी॥४॥ असमंजस मनको मिटै सो उपाय न सूझे। दीनबंधु । कीजै सोई वनि परै जो बूझै॥५॥ विरुदावली विलोकिये तिन्हमें कोउ हौं हों। तुलसी प्रभुको परिहरयो सरनगत सो हो ॥६॥ भावार्थ-हे कल्याणखरूप रामचन्द्रजी ! मुझे अपना सोच है भी और नहीं भी है, क्योंकि इस संसारमें जितने जीव हैं वे सभी संतापके पात्र हैं (सभी दुखी हैं)॥१॥ पर क्या आप-जैसे बड़े समर्थसे सिर्फ एक मेरी ही ओरसे सम्बन्ध है ? ( शायद यही हो; क्योंकि ) आपको तो मेरे-जैसे बहुतेरे हैं, किन्तु मेरे तो एक आप ही हैं॥ २॥ हे नाथ ! आप तो घट-घटकी जानते हैं,