पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/२५२

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२५७ विनय-पत्रिका नाथ हाथ माया-प्रपंच सब, जीव-दोप-गुन-करम-कालु । तुलसिदास भलो पोच रावरो, नेकु निरखि कीजिये निहालु ॥ ३॥ भावार्थ-हे देव ! (आपके सिवा ) दीनोंपर दया करनेवाला दूसरा कौन है ? आप गीलके भण्डार, ज्ञानियोंके गिरोमणि, शरणा- गतोंके प्यारे और आश्रितोंके रक्षक हैं ॥ १ ॥ आपके समान समर्थ कौन है ? आप सब जाननेवाले हैं, सारे चराचरके खामी हैं और शिवजीके प्रेमरूपी मानसरोवरमें (विहार करनेवाले ) हंस हैं। (दूसरा ) कौन ऐसा खामी है जिसने प्रेमके वश होकर पक्षी ( जटायु), राक्षस ( विभीपण), बदर, भील (निषाद ) और भालुओंको अपना मित्र बनाया है ॥ २ ॥ हे नाथ ! मायाका सारा प्रपञ्च एवं जीवोंके दोष, गुण, कर्म और काल सब आपके ही हाथ हैं। यह तुलसीदास, भला हो या बुरा, आपका ही है। तनिक इसकी ओर कृपादृष्टि कर इसे निहाल कर दीजिये ॥ ३ ॥ राग सारंग [१५५] विखास एक राम-नामको। मानत नहिं परतीति अनत ऐसोइ सुभाव मन वामको ॥१॥ पढ़िवो परयो न छठी छ मत रिगु जजुर अथर्वन सामको। व्रत तीरथ तप सुनि सहमत पचि मरै करै तन छाम को ? ॥२॥ करम-जाल कलिकाल कठिन आधीन सुसाधित दामको । ग्यान विराग जोग जप-तप, भय लोभ मोह कोह कामको ॥३॥ सव दिन सब लायक भव गायक रघुनायक गुन-ग्रामको । बैठे नाम-कामतरुत्तर डर कौन घोर घन घामको ॥४॥ वि० प०१७-