२६७ विनय-पत्रिका किया था, वही सम्पत्ति श्रीरामने बडे ही संकोचके साथ विभीषण- को दे डाली ॥ ३॥ तुलसीदास कहते हैं कि अरे मेरे मन ! जो तू सब तरहसे सब सुख चाहता है, तो श्रीरामजीका भजन कर । कृपानिधान प्रभु तेरी सारी कामनाएँ पूरी कर देंगे ॥ ४ ॥ [१६३] एकै दानि-सिरोमनि साँचो। जोइ जाच्यो सोइ जाचकतावस, फिरि वहु नाच न नाचो ॥१॥ सव स्वारथी असुर सुर नर मुनि कोउ न देत विनु पाये। कोसलपालु कृपालु कलपतरु द्रवत सकृत सिर नाये ॥२॥ हरिहु और अवतार आपने, राखी वेद-बड़ाई। लै चिउरा निधि दई सुदामहिं जद्यपि बाल मिताई ॥३॥ कपि सबरी सुग्रीव विभीषन, को नहिं कियो अजाची। अय तुलसिहि दुख देति दयानिधि दारुन आस पिसाची ॥४॥ भावार्थ-हे श्रीराम ! सच्चे दानियोंमें शिरोमणि एक आप ही हैं। जिस किसीने ( एक चार ) आपसे माँगा, फिर उसे माँगनेके लिये बहुत नाच नहीं नाचने पड़े अर्थात् वह पूर्णकाम हो गया ॥१॥ दैत्य, देवता, मनुष्य, मुनि-ये सभी स्वार्थी हैं । बिना कुछ लिये कोई कुछ नहीं देते। किन्तु हे कोशलपति ! आप ऐसे कृपालु कल्पतरु हैं, जो एक बार प्रणाम करते ही कृपावश पिघल जाते हैं ॥२॥ आपने अपने दूसरे-दूसरे अवतारों में भी वेदोंकी मर्यादा पाली है। जैसे यद्यपि सुदामासे आपकी बचपनकी मित्रता थी, पर उससे जब चिउरा ले लिये तभी उसे सम्पत्ति प्रदान की ॥ ३ ॥ हे रामजी ! आपने सुग्रीव, शबरी, विभीषण और हनुमान् इनमेंसे किस-किसको
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