विनय-पत्रिका ३०८ [ १९१] एक सनेही साचिलो केवल कोसलपालु। प्रेम-कनोड़ो रामसो नहिं दूसरो दयालु ॥ १॥ तन-साथी सव खारथी, सुर व्यवहार-मुजान। आरत अधम-अनाथ हित को रघुबीर समान ॥ २॥ नाद निठुर, समचर लिखी, सलिल सनेह न सूर। ससि सरोग, दिनकर बड़े, पयद प्रेम-पथ कूर ॥३॥ जाको मन जालो बध्यो, ताको सुखदायक सोइ । सरल सील साहिब सदा सीतापति सरिस न कोइ ॥ ४॥ सुनि सेवा सही को करै, परिहरै को दूषन देखि। केहि दिवान दिन दीन को आदर-अनुराग बिसेखि ॥ ५॥ खग-सवरी पितु-मातु ज्यों माने, कपि को किये मीत । केवट भेट्यो भरत ज्यो, ऐसो को कहु पतित-पुनीत ॥ ६॥ देह अभागर्हि भागु को, को राखै सरन सभीत। वेद-विदित विरुदावली, कवि-कोविद गावत गीत ॥ ७॥ कैसेउ पॉवर पातकी, जेहि लई नामकी ओट । गॉठी बाँध्यो दाम तो, परख्यो न फेरि खर-खोट ॥ ८॥ मन मलीन, कलि किलविषी होत सुनत जासु कृत-काज । सो तुलसी कियो आपुनो रघुवीर गरीव-निवाज ॥९॥ भावार्थ-सन्चेस्नेही तो केवल एककोशलेन्द्र श्रीरामचन्द्रजी ही हैं, प्रेमका कृतज्ञ रामजीके समान कोई दूसरा दयाल नहीं है॥१॥ इसशरीर- से सम्बन्ध रखनेवाले सभी स्वार्थी हैं, देवता व्यवहारमें चतुर हैं (जितनी सेवा करोगे, उतना ही फल देंगे । और यदि कुछ बिगड़ गया, तो सारा किया-कराया व्यर्थ कर देंगे)। दुखी नीच और अनायका हित करनेवाला
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