पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३०४

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विनय-पत्रिका श्रीरघुनाथजीके समान दूसरा कौन है ? (कोई भी नहीं)॥२॥ ( अब प्रेमियोंकी दशा देखिये) राग अथवा सगीतका खरनिर्दय होता है (उसी- के कारण वेचाग हिरण जालमे फँसकर मारा जाता है) । अग्नि सबके साय समान व्यवहार करनेवाली है (वेचारे पतंगको उसीमें पड़कर भस्म होना पड़ता है)। जल भी प्रेमके निवाहनेमें वीर नहीं है (मछली तो उसके विना क्षणभर भी जीवित नहीं रहती, पर वह ऐसा है कि उसको मछलीके बिना कोई दु.ख नहीं होता)। चन्द्रमा ( आजन्म) रोगी है ( उसका प्रेमी चकोर तो उसपर मुग्ध होकर अंगारे चुगता है; किन्तु चन्द्रमा उसपर तनिक भी तर्स नहीं खाता)। सूर्य बड़प्पनमें भूल रहा है, (कमलकी तो कली-कली उसे देखकर खिल उठती है पर वह उसे नीचसमझकर क्षणभरमें ही सुखा डालता है) और मेघ तो प्रेम-पथके लिये बड़ाही निर्दय है (वेचारे चातकको तरसाता ही नहीं,उसपर गरज- गरजकर ओले बरसाता है और बिजली गिराता है )॥३॥ (पर क्या किया जाय) जिसका मन जिससे बंध गया, उसके लिये वही सुख देनेवाला होता है। (दु.खको भी सुख मान लेता है); किन्तु (मेरी दृष्टिमें) श्रीरघुनाथजी-सरीखा सरल, सुशील खामी दूसरा नहीं है।॥ ४॥ सेवा सुनते ही उसपर 'सही' कर देनेवाला--सेवा मान लेनेवाला दूसरा कौन है ? और अपराध देखकर भी उनपर कौन खयाल नहीं करता : किसके दरबारमे दीनोंका सम्मान विशेष प्रेमसे किया जाता है ! ॥५॥ पक्षी ( जटायु ) और शबरीको किसने पिता और माताके समान माना ? वंदरों (सुग्रीव आदि) को किसने अपना मित्र बनाया ? गृह निषादसे, जो अपने सगे भाई भरतकी तरह हृदयसे लगाकर मिले, भला बताओ तो, पापियोंको पवित्र करनेवाला ऐसा दूसरा कौन है ?