पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३१९

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विनय-पत्रिका ३२४ और अहंकार और घमंडमें उसे खो दिया॥४॥ जिनकी मेरे-तेरेकी भेद-बुद्धि नष्ट नहीं हुई और शुद्ध अन्तःकरणसे जिन्होंने श्रीराममें चित्तको लीन नहीं किया, उन्हें हे तुलसीदास ! ऐसा यह ( मनुष्य- शरीरका ) सुअवसर निकल जानेपर फिर पछतानेसे क्या मिलेगा ! ( इसलिये चेतकर अभी भगवान्के भजनमें लग जाना चाहिये)॥५॥ [२०२] काजु कहा नरतनु धरि सारयो। पर-उपकार सार श्रुतिको जो, सो धोखेहु न विचारयो ॥१॥ द्वैत मूल, भय-सूल, सोक-फल, भवतरु तरैन टारयो। रामभजन-तीछन कुठार लै सो नहिं काटि निवारयो ॥२॥ संसय-सिंधु नाम-वोहित भजि निज आतमा न तारन्यो । जनम अनेक विवेकहीन बहु जोनि भ्रमत नहिं हारयो ॥ ३॥ देखि आनकी सहज संपदा द्वेष-अनल मन जारयो । सम, दम, दया, दीन-पालन, सीतल हिय हरिन सँभारयो॥४॥ प्रभुगुरु पिता सखा रघुपति त मन क्रम वचन विसारयो। तुलसिदास यहि आस, सरन राखिहि जेहि गीध उधारयो ॥५॥ भावार्थ-तुने मनुष्य-शरीर धारणकर कौन-सा कार्य सिद्ध किया है जो परोपकार वेदोंका सार है, उसे तूने भूलकर भी नहीं विचारा॥१॥ यह संसाररूपी वृक्ष, जिसकी द्वैत अर्थात् भेदबुद्धि जड है, जिसमें भयरूपी कॉटे हैं और दु ख जिसका फल है, हटानेपर भी नहीं हटता ( क्योंकि जबतक इसकी द्वैतरूपी अज्ञानकी जड़ नहीं कटती तबतक इसका हटना असम्भव है)। यह केवल रामजीके भजनरूपी तेज कुल्हाड़ीसे ही कटता है, परन्तु तूने भजन करके