पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३२३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३२८ विनय-पत्रिका तबतक अन्तःकरण तो रहेगा ही, इसके त्यागका अर्थ यही है कि इसके साथ जो तादात्म्य हो रहा है उसे त्याग कर इसका द्रष्टा बन जाय | अथवा इसे भगवान्के अर्पण करके इसके द्वारा केवल भगवत्- सम्बन्धी कार्य ही करे) ऐसा करनेसे निर्मल विवेकका उदय होगा, तब अपने आत्मखरूपरूपी उदार आनन्दघन परम पदकी प्राप्ति होगी ॥ ५॥ पञ्चमीके अनुसार पाँचवॉ साधन यह है कि स्पर्श, रस, शब्द, गन्ध और रूप-इन पॉचों इन्द्रियों के विषयोंके कहने में, अर्थात् इनके अधीन होकर न चलना चाहिये, क्योंकि इनके वश होनेसे जीवको, संसाररूपी अंधेरे गहरे कुएँ में गिरना पडेगा ( जन्म- मृत्युके चक्रमें पडना होगा)।। ६ ॥ षष्ठीके समान छठा उपाय यह है कि श्रीजानकीनाथ श्रीरामजीकी प्राप्तिके लिये काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य-इन छओं शत्रुओंको जीत लेना चाहिये । श्रीरामके कृपारूपी जल बिना लोभरूपी अग्नि नहीं बुझती (भगवत्कृपा जीवपर सदा है ही, अतः उस कृपाका अनुभव कर इन लोभादि शत्रुओंको मारना चाहिये ) ॥ ७ ॥ सप्तमीके समान सातवा साधन यह है कि सात धातुओं ( रस, रक्त, मास, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र) से बने हुए इस ( अपवित्र, क्षणभङ्गुर परन्तु दुर्लभ मनुष्य-) शरीरपर विचार करना चाहिये । इस शरीरका केवल एक यही फल है कि इससे परोपकार ही किया जाय ॥८॥ अष्टमीके समान आठवाँ उपाय यह है कि निर्विकारस्वरूप श्रीरामचन्द्रजी अष्टया जड (अपरा ) प्रकृति ( पृथ्वी, जल, अग्नि, घायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार ) से परे: Ram जबतक दृदयमें नाना प्रकारको कामनाएँ बनी हुई है तबतक