पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३२४

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२२९ विनय-पत्रिका मिल सकते हैं ? ॥ ९॥ नवमीके समान नवा साधन यह है कि जिसने इस नौ दरवाजेकी नगरी अर्थात् नौ छेदवाले शरीरमें रहकर अपने आत्माका कल्याण नहीं किया, वह अनेक योनियोंमे भटकता हुआ नाना प्रकारके दारुण दु.खोंको प्राप्त होगा ( इसलिये आत्माके कल्याणके लिये ही प्रयत्न करना चाहिये )॥१०॥ दशमीके समान दसवाँ साधन यह है कि जिसने दसों इन्द्रियोंका संयम करना नहीं जाना, इन्द्रियोंको वशमें नहीं किया, उसके सारे साधन निष्फल हो जाते हैं और उस इन्द्रियोंके दास, असयमी मनुष्यको भगवानकी प्राप्ति नहीं हो सकती॥ ११॥ एकादशीके समान ग्यारहवाँ साधन यह है कि मनको वशमें करके एक श्रीभगवान्की ही सेवा करनी चाहिये । इसीसे ( परमार्थरूपी एकादशी ) व्रतका जन्म-मरणके नाशरूप ( परम ) फल मिलता है। अर्थात् वह भगवान्को प्राप्त हो जाता है ॥ १२ ॥ द्वादशीके दिन दान दिया जाता है, अतः बारहवॉ साधन यह है कि ( ऐसा भगवत्-प्रीत्यर्थ निष्काम बुद्धिसे) दान देना चाहिये जिससे तीनों लोकोंसे भय न रहे ( भगवत्प्राप्ति हो जाय ) उस द्वादशीलपी वारहवें साधनका पारण यही है कि सदा परोपकारमे लगे रहना चाहिये । (इस दान और पारणसे) फिर शोक नहीं व्यापता ॥ १३॥ त्रयोदशीके समान तेरहवा साधन यह है कि जाग्रत, खप्न और सुपुप्ति- इन तीनों अवस्थाओंको त्याग कर भगवान्का भजन करना चाहिये ( भाव यह है कि नित्य- निरन्तर, सोते-जागते श्रीभगवद्भजन ही करना चाहिये । भगवान् मन, कर्म और वाणीसे जाननेमें नहीं आते, क्योंकि ( वर्फमें जलकी भाँति ) वे ही सवमें व्याप्त हैं और ( खप्नके दृश्योंकी भाँति ) स्वयं