विनय-पत्रिका ३३२ जाय जैसे कि पीतल या तांबा-राँगा मिली हुई धातुके वर्तनमें रक्खी हुई नाना प्रकारकी खटाइयों से उनके कड़वी हो जानेके कारण (मन हट जाता है)। (ऐसे अधिकारी भक्तपर ) आनन्दधन चतुर- शिरोमणि कोशलनाथ भगवान् श्रीरामचन्द्रजी प्रसन्न होकर क्यों न उसके अधीन हो जायें ॥२॥ (जो जीव भगवच्चरणारविन्दोंमें इस प्रकार प्रेम करेगा वह महापुरुप ही ) सब प्राणियोंके हितम संलग्न, निर्विकार चित्तवाला, एकरस, भक्तिप्रेम और भगवदीय नियमोंमे दृढ़ होता है, परन्तु हे तुलसीदास ! यह दशा तभी प्राप्त होती है जब रावणके मारनेवाले खामी (श्रीरामजी) प्रसन्न होकर कृपा करते हैं ।। ३॥ [२०५] जो मन भज्यो चहै हरि-सुरतरु । तौतज विषय-विकार,सारभज,अजहूँ जो मैं कहाँसोइ करु ॥१॥ सम, संतोष, विचार विमल अति सतसंगति,येचारिढ़ करि धरु काम-क्रोध अरु लोभ-मोहमद, राग-द्वेष निलेषकरि परिहरु ॥२॥ श्रवन कथा मुख नाम-हृदय हरि, सिर प्रनाम, सेवा कर अनुसरु। नयननि निरखि कृपा-समुद्रहरि अग-जग-रूपभूपसीतावरु॥३॥ इहै भगति, बैराग्य-ग्यान यह, हरि-तोषन यह सुभक्त आचरु । तुलसिदास सिव-मत मारग यहि चलत सदा सपनेहुँनाहिंन डरु भावार्थ हे मन ! यदि तू भगवत्-रूपी कल्पवृक्षका सेवन करना चाहता है तो विषयोंके विकारको छोडकर साररूप श्रीराम- नामका भजन कर और जो मैं कहता हूँ उसे अब भी कर । अभी- तक कुछ बिगडा नहीं)॥ १॥ समता, सन्तोत्र, निर्मल विवेक और सत्संग-इन चारोंको दृढ़तापूर्वक धारण कर । काम, क्रोध, लोभ,
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