पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३३२

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विनय-पत्रिका - [२०९] नाहिने नाथ ! अवलंव मोहि आनकी। करम-मन-बचन पन सत्य करुनानिधे, ___एक गति राम ! भवदीय पदबानकी ॥१॥ कोह-मद-मोह-ममतायतन जानि मन, ___ वात नहि जाति कहि ग्यान-विग्यानकी । काम-संकलप उर निरखि बहु बासनहि। आस नहिं एकहू आँक निरवानकी ॥ २ ॥ बेद-चोधित करम धरम विनु अगम अति, जदपि जिय लालसा अमरपुर जानकी। सिद्ध-सुर-मनुज-दनुजादि सेवत कठिन, द्रवहिं हठजोग दिये भोग बलि प्रानकी ॥३॥ भगति दुरलभ परमः संभु-सुक-मुनि-मधुप, प्यास पदकंज-मकरंद-मधुपानकी। पतित-पाचन सुनत नाम विनामकृत, भ्रमित पुनि समुझि चित ग्रंथि अभिमानकी ॥ ४॥ नरक-अधिकार मम घोर संसार-तम- कूपकहि, भूप ! मोहि सक्ति आपानकी। दासतुलसी सोउ त्रास नहि गनत मन, सुमिरि गुह गीध गज ग्याति हनुमानकी ॥ ५॥ भावार्थ-हे नाथ : मुझे और किसीका आसरा नहीं है। हे करुणानिधान ! मन, वचन और कर्मसे मेरी यह सच्ची प्रतिज्ञा है कि मुझे केवल एक आपकी जूतियोंका ही सहारा है ॥ १॥ मेरा मन क्रोध, अभिमान, अज्ञान और ममताका स्थान है। इसलिये ज्ञान-विज्ञानकी. वि०प०२२-