३३८ विनय-पत्रिका बात तो उसके लिये कही ही नहीं जा सकती। हृदयमें अनेक कामनाओंक संकल्प और नाना प्रकारकी (विषय-) वासनाएँ देखकर मोक्षकी तो एक अंश भी आशा नहीं है ॥२॥ यद्यपि ( कर्म-धर्म-हीन होकर भी ) मेरे मनमें स्वर्ग जानेकी बडी लालसा लग रही है, पर वेदोक्त कर्म-धर्म किये बिना वर्गकी प्राप्ति होना अत्यन्त कठिन है। इसके सिवा सिद्ध, देवता, मनुष्य एवं राक्षसोंकी सेवा भी बडी कठिन है। ये लोग तभी प्रसन्न होंगे जब इनके लिये हठयोग किया जाय, यज्ञका भाग दिया जाय और प्राणोंकी बलि चढायी जाय । (यह सब भी मुझसे नहीं हो सकता, अतएव इन लोगोंकी कृपाकी आशा करना भी व्यर्थ है) ॥ ३ ॥ भक्ति (तो मुझ-सरीखे मनुष्यके लिये) परम दुर्लभ है, क्योंकि शिव, शुकदेव तथा मुनिरूप भौंरे भी आपके चरण-कमलोंके मधुर मकरन्दको पीनेके लिये सदा प्यासे ही बने रहते हैं, ( इस रसको पीते-पीते जब वे भी नहीं अघाते तब मुझ जैसा नीच तो किस गिनतीमें है ? ) हॉ, आपका नाम अवश्य ही पतितोंको पावन करनेवाला तथा शान्ति (मोक्ष) देनेवाला सुना जाता है। किन्तु चित्तमें अभिमानकी गाउँ पडी रहनेके कारण ( राम-नामके साधनसे भी) मन फिर भ्रम जाता है (मैं इतना बड़ा समझदार और विद्वान् होकर मामूली राम-नाम , इस अभिमानके मारे राम- नामसे भी वञ्चित रह जाता हूँ) ॥ ४ ॥ हे महाराज ! इन सब बातोंको देखते मेरा तो, बस, नरकमें ही जानेका अधिकार है, मेरे कोंसे तो मै घोर संसाररूपी अंधेरे कुऍमें पड़ा रहनेयोग्य ही हूँ, किन्त इतनेपर भी मुझे आपका ही बल है । यह तुलसीदास अपने मनमें गुह, जटायु, गजेन्द्र और हनुमान्की जाति याद करके संसारके
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