विनय-पत्रिका - [२१६] हरि तजि और भजिये काहि ? नाहिने कोउ राम लो ममता प्रनतपर जाहि ॥१॥ कनककसिपु विरंचिको जन करम मन अरु वात । सुतहि दुखवत विधि न बरज्यो कालके घर जात ॥ २॥ संभु-सेवक जान जग, बहु बार दिये दस सीस। करत राम विरोध सो सपनेहु न हटक्यो ईस ॥३॥ और देवनकी कहा कहाँ, खारथहिके मीत । कबहु काहु न राख लियो कोउ सरन गयउ सभीत ॥ ४॥ को न सेवत देत संपति लोकहू यह रीति । 'दासतुलसी दीनपर एक राम ही की प्रीति ॥ ५॥ भावार्थ-भगवान् श्रीहरिको छोड़कर और किसका भजन करें ! श्रीरघुनाथजीके समान ऐसा कोई भी नहीं है जिसकी दीन -शरणागतोपर ममता हो ॥ १॥ (प्रमाण सुनिये ) हिरण्यकशिपु ब्रह्माजीका कर्म, मन और वचनसे भक्त था, किन्तु ब्रह्माने ( उसके कालको जानते हुए भी ) उसे पुत्र ( प्रह्लाद ) को ताड़ना देते समय नहीं रोका ( और फलखरूप ) वह यमलोक चला गया । (यदि वे पहलेसे उसे रोक देते तो वेचारा क्यों मरता?)॥२॥ संसार जानता है कि रावण शिवजीका भक्त था और उसने कई बार अपने सिर काट-काटकर शिवजीको अर्पित किये थे, किन्तु जब वह श्रीरघुनाथजीके साथ वैर करने लगा तब आपने उसे खममें भी न रोका ( यह जानते थे कि श्रीरामजीके साथ वैर करनेसे यह मारा जायगा) ॥ ३ ॥ (जब ब्रह्माजी और शिवजीका
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