पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३६४

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३६९ विनय-पत्रिका भावार्थ-(तुम-सा ) दीनबन्धु दूसरा कहाँ पाऊँगा ? हे नाथ ! तुमको छोड़कर पराये ( भक्तके ) दुःखसे दुखी होनेवाला दूसरा कौन है ? फिर अपनी दीनताका दुखड़ा किसके आगे रोता फिरूँ॥१॥ जहाँ-जहाँ मै अपने मनको डुलाता हूँ, वहाँ-वहाँ कहीं तो ऐसे स्वामी मिलते हैं जिनके दया नहीं है और कहीं ऐसे मिलते हैं जो दयाल तो हैं, पर अयोग्य ( असमर्थ ) है । यह सुन- समझकर चुप ही रह जाता हूँ; क्योंकि ऐसोंके सामने कुछ कहकर अपना भरम ही क्यों खोऊँ ? ( भेद भी खुल जायगा और कुछ होगा भी नहीं ) ॥२॥ कर्म तो ऐसे नोच किया करता हूँ कि गायके खुरमे डूब जाऊँ (चुल्लूभर पानीमे डूब मरूँ), पर बातें बनाकर समुद्रकी थाह ले रहा हूँ ( कोरी कथनी-ही-कथनी है, करनी रत्तीभर भी नहीं है)। मेरा मन बडा ही लालची है और कामका गुलाम है, परन्तु मुखसे तुम्हारा दास बनता फिरता हूँ॥ ३॥ हे प्रभो | आप तुलसीके मनकी तो सभी ( बुरी-भली ) बातें जानते हैं, तो भी मैं अपनी कुछ बाते बतलाना चाहता हूँ। अब तो कुछ ऐसा उपाय कीजिये जिससे कपट छोड़कर ( शुद्ध हृदयसे ) आपके द्वारपर पड़ा-पडा केवल आपके गुण ही गाया करूँ ॥ ४ ॥ . [२३३] मनोरथ मनको एकै भाँति । चाहतमुनि-मन-अगम सुकृत-फल, मनसा अघ न अघाति ॥ १॥ करमभूमि कलि जनम, कुसंगति, मति बिमोह-मद-माति । करत कुजोग कोटि, क्यों पैयत परमारथ-पद सांति ॥ २॥ सेइ साधु-गुरु, सुनि पुरान-श्रुति वूझयो राग बाजी तॉति । तुलसी प्रभु सुभाउ सुरतरु-सो, ज्यो दरपन मुख-कांति ॥३॥ वि० प० २४-