विनय-पत्रिका ३६८ अर्थात् नारकीय क्लेश एवं अनेक योनियों में दारुण दुःख सहे हैं और सहूँगा । ( मुझे इसकी कुछ भी परवा नहीं है ) हे प्रभो ! मुझे अथे, धर्म, काम और मोक्षकी भी लालसा नहीं है। यद्यपि मेरे लिये ये दुर्लभ हैं, पर तुम चाहो तो इनको सहजमें ही दे सकते हो ॥२॥ हे रामजी ! ( मेरी मनःकामना तो कुछ दूसरी ही है ) मैं तो तुम्हारे हाथके खिलौनेके रूपमें पक्षी, पशु, वृक्ष और कंकर-पत्यर होकर ही रहना चाहता हूँ। इस नातेसे मुझे (घोर ) नरकमें भी सुख है और इसके बिना मैं मोक्ष प्राप्त करनेपर भी दुःखसे जलता रहेगा (मोक्ष नहीं चाहिये, रक्खो चाहे नरकमें, परन्तु अपने हाथका खिलौना बनाकर रक्खो । वह खिलौना चाहे चेतन हो या जड़ पेड़-पत्थर हो, मुझे उसीमें परम सुख है) ॥३॥ इस दासके मनमें बस एक यही कामना है कि यह सदा तुम्हारी जूती पकड़े रहे (शरणमें पड़ा रहे) या तो मुझे वचन दे दो (कि हम तेरी यह कामना पूरी कर देंगे) अथवा इस बातको मनमें निश्चय कर लो कि हम तुलसीका यह प्रण निबाह देंगे॥४॥ [२३२] दीनबंधु दूसरो कह पावों। को तुम विनु पर-पीर पाइ है ? केहि दीनता सुनावों ॥१॥ प्रभु अकृपालु, कृपालु अलायक, जहँ-जहँ चितहि डोलावों। इहै समुझि सुनि रहीं मोन ही, कहि भ्रम कहा गवानों, २॥ गोपद वुड़िवे जोग करम करो वातनि जलधि थहावों। अति लालची, काम-किंकर मन, मुख रावरो कहावों॥३॥ तुलसी प्रभु जियकी जानत सब, अपनो कछुक जनावों। सो कीज, जेहि भाँति छोडि छल द्वार परो गुन गावों॥४॥
पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३६३
दिखावट