पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३६८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३७३ विनय-पत्रिका कि जितने देवता, सिद्ध, मुनीश्वर और योगके ज्ञाता हैं वे सब पूजा लेकर उसके बदलेमें ( नाशवान् सांसारिक विषय- ) सुख देते हैं और ऐसा भी वे अपनी हानि और लाभका विचार करके करते हैं ॥२॥ आपके सिवा ( ऐसा ) किसका नाम है जिसका धोखेसे भी स्मरण करनेसे पापोंके समूह नष्ट हो जाते हैं ? अजामिल ब्राह्मण, वाल्मीकि व्याध, गजराज, जटायु गीध आदि करोडों दुष्ट किसके अंदर समा गये ? ( आपने ही उनको खीकार कर अपना परम धाम दे दिया ) ॥ ३ ॥ जो अपने सेवकोंके सुमेरु पहाड़के समान ( बडे-बडे ) अपराधोंको भुलाकर उनके रजके कणके समान ( जरा-जरा-से ) गुणोंको हृदयमें रख लेते हैं, हे तुलसीदास ! हे मूर्ख ! सारी आगा छोडकर तू उन्हींको क्यों नहीं भजता ॥४॥ [ २३७] काहे न रसना, रामहि गावहि ? निसिदिन पर-अपवाद वृथा कन रटि-रटि राग बढ़ावहि ॥१॥ नरमुख सुंदर मंदिर पावन वसि जनि ताहि लजावहि । ससि समीप रहि त्यागिसुधा कतरविकर-जल कहँधावहि ॥२॥ काम-कथा कलि-कैरव-चंदिनि, सुनत श्रवन दै भावहि । तिनहिं हटकि कहिहरि-कल-कीरति, करन कलंकनसावहि ॥३॥ जातरूपमति, जुगुति रुचिर मनि रचि-रचि हार वनावहि । सरन-सुखद रविकुल-सरोज-रबि राम-नृपहि पहिरावहि ॥४॥ वाद-विवादाखादतजिभजिहरि, सरसचरित चितलावहि । तुलसिदास भव तरहि, तिहूँ पुर तू पुनीत जस पावहि ॥ ५॥ भावार्थ-अरी जीभ ! तू श्रीरामजीका गुणगान क्यों नहीं