३८३ विनय-पत्रिका जारत हियो ताहि तजि हौंसठ, चाहत यहि विधि तृषा वुझायो॥ व्यापत त्रिविध ताप तनु दारुन, तापर दुसह दरिद्र सतायो। अपनेहि धाम नाम-सुरतरु तजि विषय-चदूर-वाग मन लायो॥ तुम-सम ग्यान-निधान, मोहि सम मूढ़ न आन पुराननि गायो। तुलसिदास प्रभु! यह विचारि जिय कीजै नाथ उचित मन भायो५ भावार्थ-हे हरे ! मैंने इसी कारण ज्ञानको खो दिया कि जो मै अपने हृदयकमलमे विराजित आपको छोड़कर ( सुखके लिये ) व्याकुल होकर बाहर इधर-उधरके अनेक साधनोंमे भटकता फिरा ॥ १।। जैसे अत्यन्त बुद्धिहीन हरिण अपने ही शरीरमें सुन्दर कस्तूरी होनेपर भी उसका भेद नहीं जानता और पहाड, पेड़, लता, पृथ्वी और बिलोंमे ढूँढता फिरता है कि यह श्रेष्ठ सुगन्ध कहाँसे आ रही है ( वहीहालत मेरी है। सुखखरूप स्वामीके हृदयमे रहनेपर भी मैं बाहर ढूँढ़ रहा हूँ)॥२॥ तालाब निर्मल पानीसे लबालब भरा है, किन्तु ऊपरसे कुछ काई और घास छायी है। इसीसे ( भ्रमवश ) उस (तालाबके खच्छ) जलको छोड़कर मैं दुष्ट अपना हृदय जला रहा हूँ, और इस प्रकार अपनी प्यास बुझाना चाहता हूँ ( हृदय-सरोवरमें सच्चिदानन्दघन परमात्मारूपी अनन्त शीतल जल भरा है, परन्तु अज्ञानकी काई आ जानेसे मैं मृगजलरूपी सांसारिक भोगोंको प्राप्त करके उनसे परमसुखकी तृष्णा मिटाना चाहता हूँ और फलखरूप त्रितापसे जल रहा हूँ॥३॥ एक तो वैसे ही शरीरमें दारुण त्रिविध ताप व्याप रहे हैं, तिसपर यह (साधन-धनके अभावकी) असहनीय दरिद्रता सता रही है ( मैं कैसा महान् मूर्ख हूँ कि ) अपने ही ( हृदयरूपी) घरमें भगवन्नामरूपी (मनचाहा फल देनेवाला ) जो कल्पवृक्ष है उसे छोडकर मैंने विषयरूपी
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