विनय-पत्रिका
जव जव जग-जाल व्याकुल करम काल,
सब खल भूप भये भूतल-भरन ।
तव तब तनु धरि, भूमि-भार दूरि करि
थापे मुनि, सुर, साधु, आश्रम, वरन ॥२॥
वेद, लोक, सव साखी, काहूकी रती नराखी,
रावनकी बंदि लागे अमर मरन ।
ओक दै विसोक किये लोकपति लोकनाथ
रामराज भयो धरम चारिहु चरन ॥३॥
सिला, गुह, गीध, कपि, भील, भालु, रातिचर,
ख्याल ही कृपालु कीन्हे तारन-तरन ।
पील-उद्धरन ! सीलसिंधु ! ढील देखियतु
तुलसी पै चाहत गलानि ही गरन ॥४॥
भावार्थ-हे श्रीरामजी ! हे कल्याणखरूप रघुनाथजी ! रक्षा
कीजिये, रक्षा कीजिये । आपका सुयश सुनकर शरण आया हूँ। हे
दीनबन्धो! आप दीनता, दरिद्रता, सन्ताप, दोष, दारुण दु.ख और
असहनीय भय तथा पापोंका नाश करनेवाले है ॥ १॥ जब-जब
साधु (संत और गौ-ब्राह्मण) काल और कर्मके वश हो जगज्जालमें
फैसकर व्याकुल हुए और सब दुष्ट राजा पृथ्वीपर भारखरूप हुए,
तव-तब आपने अवतार-शरीर धारण कर ( दुष्टोंका सहार कर )
पृथ्वीका भार दूर कर दिया और मुनि, देवता, सत एव वर्णाश्रम-
धर्मकी पुनः स्थापना की ॥ २॥ वेद और संसार दोनों ही इसके
साक्षी हैं कि जब रावणने किसीकी भी प्रतिष्ठा नहीं रहने दी और
देवतागण उसके कैदखानेमें पड़े-पडे मरने, लगे, तब.हे भगवन् !
आपहीने उन लोक-पतियोंको-इन्द्र, कुबेर आदिको आश्रय देकर
पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३८४
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