पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३९

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विनय-पत्रिका विस्वनाथ पालक कृपालुचित, लालति नित गिरिजा-सी। । सिद्धि, सची, सारद पूजहिं मन जोगवति रहति रमा-सी॥६॥ पंचाच्छरी प्रान, मुद माधव, गव्य सुपंचनदा-सी। ब्रह्म-जीव-लम रामनाम जुग, आखर विस्व विकासी ॥ ७॥ चारितु चरति करम कुकरम करि, मरत जीवगन घासी। लहत परमपद पय पावन, जेहि चहत प्रपंच-उदासी ॥८॥ कहत पुरान रची केसव निज कर-करतूति कला-सी। तुलसी वसि हरपुरी राम जपु, जो भयो चहै सुपासी ॥९॥ भावार्थ-इस कलियुगमें काशीरूपी कामधेनुका प्रेमसहित जीवनभर सेवन करना चाहिये । यह शोक, सन्ताप, पाप और रोगका नाश करनेवाली तथा सब प्रकारके कल्याणोंकी खानि है॥१॥ काशीके चारों ओरकी सीमा इस कामधेनुके सुन्दर चरण हैं। स्वर्गवासी देवता इसके चरणोंकी सेवा करते हैं । यहाँके सब तीर्थ- स्थान इसके शुभ अङ्ग हैं और नाशरहित अगणित शिवलिङ्ग इसके रोम हैं।॥ २॥ अन्तर्गही (काशीका मध्यभाग) इस कामधेनुका ऐन* (गद्दी ) है । अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष-ये चारों फल इसके चार थन हैं; वेद-शास्त्रोंपर विश्वास रखनेवाले आस्तिक लोग इसके बछड़े हैं- विश्वासी पुरुषोंको ही इसमें निवास करनेसे मुक्तिरूपी अमृतमय दूध मिलता है, सुन्दर वरुणा नदी इसकी गल-कंबलके समान शोभा बढ़ा रही है और असी नामक नदी पूछके रूपमें शोभित हो रही है ॥ ३ ॥ दण्डधारी भैरव इसके सींग हैं, पापमें मन रखनेवाले दुष्टोंको उन सींगोंसे यह सदा डराती रहती है । लोलार्क ( कुण्ड) • यनोंके ऊपरका भाग जिसमें दूध भरा रहता है।