पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/४०९

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विनय-पत्रिका कलियुगके पाप और कपट क्षीण हो जाते है। है करुणानिधान ! तुलसी यही यरदान चाहता है कि वह सीतापति श्रीरामजीकी भफिरूपी गाजीके जलमें सदा मलीकी तरह इवा रहे।॥ ५ ॥ [२६३] नाथ नीक के जानियी ठीक जन-जीयकी। रावरो भरोसो नाह के सु-प्रेम-नेम लियो रुचिर रहनि रुचि मति गति तीयकी ॥ १॥ कुकृत-सुकृत बस सब हो सो संग पर्यो, परखी पराई गति, मापने हूँ कीयकी। मेरे भलेको गोसाई ! पोच को, न सोच संक होहुँ किये कहीं सौह साँची सीय-पीयकी ॥ २॥ ग्यानहू-गिराके खामी, बाहर अंतरजामी, यहॉ क्यों दुरंगी यात मुखकी औ हीयकी? तुलसी तिहारो, तुमही पै तुलसीके हित, राखि कहाँ हो तो जो पैदेहों माखी धीयकी ॥ ३ ॥ भावार्थ-हे नाय ! इस अपने दासके मनकी वात आप ठीक- ठीक समझ लीजिये । मेरी बुद्धिरूपी सुन्दर (पतिव्रता) स्त्रीने आप- के भरोसेको अपना स्वामी मानकर उसीके साथ विशुद्ध प्रेम करनेका नियम लिया है और सुन्दर आचरणों में उसकी रुचि है॥१॥ पाप और पुण्यके वश होनेके कारण मुझे सभीके साथ रहना पड़ा, इसमें मैं अपनी और परायी दोनोंहीकी चालोको परख चुका हूँ। हे नाय ! मुझे अपनी भलाई या बुराईकी न तो कोई चिन्ता है, न डर है। ( आपके शरण होनेपर भी यदि भले-बुरेकी चिन्ता लगी रही या