पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/४१०

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विनय-पत्रिका भय बना रहा तो वह शरणागति ही कैसी ? खामीके शरण होते ही मैं निश्चिन्त और निर्भय हो गया हूँ) यह मैं श्रीसीतानाथजीकी शपथ खाकर सच-सच कह रहा हूँ॥२॥ (बनावटी बात कहूँगा तो वह चलेगी ही नहीं; क्योंकि ) आप ज्ञान और वाणीके खामी हैं। बाहर और भीतर दोनोंकी बात जाननेवाले हैं। आपके सामने मुंहकी और हृदयकी बात कैसे छिप सकती है ? तुलसी आपका है और आप तुलसीका हित करनेवाले हैं । इसमें मैं यदि (कुछ भी कपट ) रखकर कहता होऊँ तो मैं धीकी मक्खी हो जाऊँ । भाव जैसे मक्खी धीमें गिरकर तुरंत मर जाती है उसी प्रकार मेरा भी सर्वनाश हो जाय ॥ ३॥ [२६४] मेरो कहो सुनि पुनि भाव तोहि करि सो। चारितु विलोचन विलोक तु तिलोक महँ तेरो तिहु काल कहु को है हितू हरि-सो॥१॥ नये-नये और नेह अनुभये देह-गेह बलि, परखे प्रपंची प्रेम, परत उघरि सो। मुहद-समाज दगावाजिहीको सौदा-सून, जव जाको काज तव मिलै पाँय परि सो ॥ २॥ विवुध सयाने, पहिचाने कैयौ नाहीं नीके, देत एक गुन, लेत कोटि गुन भरि सो। 'करम-घरम श्रम-फल रघुवर विनु, राखको सो होम है, ऊसर कैसो बरिसो॥ ३३ आदि-अंत-चीच भलो भलो करै सवहीको जाको जस लोक-वेद रहो है वगरि-सो।