पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/४२४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अधच विनय-पत्रिका गनिहि, गुनिहि साहिब लहै, सेवा समीचीनको। अगुन आलसिनको पालिवो फवि आयो रघुनायक नवीनको ॥२॥ मुखकै'कहा कहाँ, विदित है जीकी प्रभु प्रवीनको। तिहू काल, तिहु लोकमें एक टेक रावरी तुलसीसे मन मलीनको ॥३॥ भावार्थ-हे देव ! कहाँ जाऊँ ? मुझ दुखी-दीनको कहाँ ठौर- ठिकाना है ? आपके समान कृपालु खामी और कौन है, जो सब प्रकारके साधनोंमें बलसे विहीन शरणागतको आश्रय दे ? ॥१॥ ( आपको छोड़कर संसारमें) जो दूसरे मालिक हैं वे तो धनी, गुणवान् यानी सद्गुणसम्पन्न और भलीभॉति सेवा करनेवाले सेवक- को ही अपनाते हैं (मै न तो धनवान् हूँ, न मुझमें कोई सद्गुण है और न.मैं भलीभाँति सेवा करनेवाला हूँ) मुझ-सरीखे नीच अथवा निर्धन ( साधनहीन ), सद्गुणोंसे हीन आलसियोका पालन-पोषण करना तो नित्य उत्साही श्रीरघुनाथजीको ही शोमा देता है ॥ २ ॥ मुहसे क्या कहूँ प्रभो ! आप तो खयं चतुर है, मेरे जीकी आप सब जानते हैं। तुलसी-सरीखे मलिन मनवालेके लिये तीनों लोकों ( खर्ग, पृथ्वी और पाताल ) और तीनों कालोंमें एकआपका ही सहारा है।॥३॥ [२७५ ] द्वार द्वार दीनता कही, काढ़ि रद, परि पाहू। ह दयालु दुनी दस दिसा, दुख-दोष-दलन-छम, कियो न लभाषन काहू ॥ १॥