विनय-पत्रिका
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तनुकुटिल कीट ज्यो, तज्यो मातु-पिताह ।
नजन्यो..
काहेको रोप, दोष काहि धौ मेरे ही अभाग मोसो सकुचत
छुइ सव छाँहू ॥२॥
दुखित देखि संतन कहो, सोचे जनि मन माहूँ।
तोसे पसु-पाँवर-पातकी परिहरे न सरन गये, रघुवर ओर
निवाहूँ॥३॥
तुलसी तिहारो भये भयो सुखी प्रीति-प्रतीति विनाहू। ..
नामकी महिमा, सील नाथको, मेरो भलो विलोकि अब ते
सकुचाहुँ, सिहाहूँ॥४॥
भावार्थ-हे नाथ ! मैं द्वार-द्वारपर दाँत निकालकर और पैर
पड़-पड़कर अपनी दीनता सुनाता फिरा। दुनिया में ऐसे-ऐसे दयाल
हैं, जो दशों दिशाओंके दुःखों और दोषोंके दमन करनेमें समर्थ हैं,
किन्तु मुझसे तो किसीने बात भी नहीं की।॥ १॥ माता-पिताने मुझे
ऐसा त्याग दिया, जैसे कुटिल कीड़ाअर्थात सर्पिणी अपने ही शरीरसेजने
हुए (बच्चे ) को त्याग देती है ! मैं किसलिये तो क्रोध करूँ और
किसको दोष दूं? यह सब मेरे ही दुर्भाग्यसे हुआ। (मैं ऐसा नीच
हूँ कि) मेरी छायातक छुनेमें भी लोग संकोच करते हैं॥ २॥मुझे
दुखी देखकर सतोंने कहा कि तू मनमें चिन्ता न कर । तुझ-सरीखे
पामर और पापी पशु-पक्षियोंतकको शरणमें जानेपर श्रीरघुनायजीने
नहीं त्यागा और अपनी शरणमें रखकर उनका अन्ततक निर्वाह
किया (तू भी उन्हींकी शरणमें जा ) ॥३॥ यह तुलसी तभीसे
आपका हो गया और आपपर इसकी प्रीति-प्रतीति न होनेपर भी
तभीसे यह बडे सुखमें भी है (प्रीति-प्रतीति होती, तो आनन्दको
पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/४२५
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