विनय-पत्रिका
कोई सीमा ही न रहती।) हे नाय ! आपके नामकी महिमा तथा
शीलने ( मेरी नालायकी होनेपर भी ) मेरा कल्याण किया, यह
देखकर अब में मन-ही-मन सकुचाता हूँ (इसलिये कि मैंने
कृयापात्र होने योग्य तो एक भी कार्य नहीं किया, फिर भी मुझ
कृतघ्नपर प्रमुकी ऐसी कृपा है) और आपकी शरणागतवत्सलताकी
प्रशंसा करता हूँ॥४॥
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' कहा न कियो, कहाँन गयो, सीस काहि न नायो ?
राम, रावरे दिन भये जन जनमि-जनमि जग दुख दसह
दिसि पायो॥१॥
आस-विवस खास दाल है नीच प्रभुनि जनायो। .
.हाहा करि दीनता कही द्वारद्वार चार-चार, परीन छार,
मुह वायो॥२॥
असन-चसन विनु वावरो जह-तहँ उठि धायो।
- महिमामान प्रिय प्रानते तजि खोलि खलनि आगे, खिनु खिनु
पेट खलायो॥३॥ '.. नाथ ! हाथ कछु नहि लग्यो, लालच ललचायो। साँच कहाँ नाच कोनसो, जो न मोहि लोभ लघु हो निरलज नचायो॥४॥ श्रवन नयन-भगमनलगे, सब थल पतितायो। . मूड मारि, हिय हारिक, हित हेरि हहरि अब चरन-सरन तकि आयो॥ ५॥ आप