विनय-पत्रिका
ही समर्थ हैं। तीनों लोकमें आपका ही यश गाया जाता है । तुलसी
आपके चरणोंमें प्रणाम कर रहा है, इसकी ओर देखिये, मैं आपकी
बलैया लेता हूँ| आपकी विरदावलीने ही मुझे बाँह और वचन देकर
बुलाया है ( आपके पतितपावन और शरणागतवत्सल विरदकी देख-
रेखमें मेरा कल्याण क्यों न होगा 2 ) ॥ ६॥
[२७७]
राम राय ! विनु रावरे मेरे को हितु साँचो ?
खामी-सहित सवसों कहाँ, सुनि-गुनि बिसेषि
कोउ रेख दूसरी खाँचो ॥१॥
देह-जीव-जोगके सखा मृपा टाँचन टाँचो।
किये विचार सार कदलिज्यों, मनि कनकसंग
लघुलसतबीच विच काँचो ॥२॥
'विनय-पत्रिका दीनकी वापु!आपु ही वाँचो।
हिये हेरि तुलसी लिखी, सो सुभाय सही करि
बहुरि पूछिये पाँचो ॥३॥
'भावार्थ-हे महाराज श्रीरामचन्द्रजी ! आपको छोड़कर मेरा सच्चा
हितू और कौन है ? मैं अपने स्वामीसहित सभीसे कहता हूँ, उसे
सुन-समझकर यदि कोई और बड़ा हो, तो दूसरी लकीर खींच
दीजिये ॥ १॥ शरीर और जीवात्माके सम्बन्धके जितने सखा या
हितू मिलते हैं, वे सब ( असत् ) मिथ्या टॉकोंसे सिले हुए हैं
(संसारके सभी सम्बन्ध मायिक हैं ) विचार करनेपर ये 'सखार
केलेके पेडके सारके समान हैं । (जैसे केलेके पेड़को छीलनेपर
वि०प० २८-
पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/४२८
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