४३४ विनय-पत्रिका छिलके ही निकलते हैं, वैसे ही संसारके सारे सम्बन्ध भी सारहीन केवल अज्ञानजनित ही हैं ) ये वैसे ही सुन्दर जान पड़ते हैं, जैसे मणि-सुवर्णके सयोगसे बीच-बीच क्षुद्र कॉच भी शोभा देता है॥२॥ हे बापजी ! इस दीनकी लिखी 'विनय-पत्रिका' को तो आप खय ही पढिये ( किसी दूसरेसे न पढ़वाइये )। तुलसीने इसमें अपने हृदयकी सच्ची बातें ही लिखी हैं, इसपर पहले आप अपने ( दयालु) खभावसे 'सही' बना दीजिये। फिर पीछे पश्चोंसे पूछिये ॥ ३॥ [२७८] पवन-सुवन ! रिपु-दवन भरतलाल ! लखन! दीनकी। निज निज अवसर सुधि किये, बलि जाउँ, दास-आस पूजि है खासखीनकी ॥१॥ राज-द्वार भली सव कहें साधु-समीचीनकी । सुकृत-सुजस साहिब-कृपा, खारथ-परमारथ, गति भये गति-विहीनकी ॥२॥ समय सँभारि सुधारिबी तुलसी मलीनकी । प्रीति-रीति समुझाइवी नतपाल कृपालुहि परमिति पराधीनकी ॥३॥ भावार्थ-हे पवनकुमार ! हे शत्रुघ्नजी ! हे भरतलालजी ! हे लखनलालजी! अपने-अपने अवसरसे ( मौका लगते ही ) इस दीन तुलसीको याद करना । मै आपलोगोंकी बलैया लेता हूँ | आपके ( कृपापूर्वक ) ऐसा करनेसे इस सर्वथा दुर्बल दासकी आशा पूरी हो जायगी ( श्रीरघुनाथजी मेरी पत्रिकापर 'सही' कर देंगे) ॥ १ ॥ राजदरवारमें सच्चे साधुओंकी तो सभी अच्छी कहते हैं, इसमें क्या विशेषता है ? किन्तु यदि आपलोग इस शरणरहित दीनकी सिफारिश
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