४६१ परिशिष्ट लाकर जोड दी, परन्तु तिसपर भी श्रीकृष्ण न बँध सके । तब थककर उनकी ओर देखकर मुसकराने लगी । कृपामय भगवान् माताकी कठिनाईको देखकर स्वयं बंध गये । अम्बरीष- महाराज अम्बरीष परम भक्त थे, एकादशी-बतके बडे ही प्रसिद्ध व्रती थे। एकादशीको दुर्वासा ऋषि उनके घर आये । महाराज- ने उनको द्वादशीके दिन भोजन करनेका निमन्त्रण दिया, क्योंकि वह द्वादशीको ब्राह्मण-भोजन कराये बिना पारण नहीं करते थे। दुर्वासा ऋषि स्नान-ध्यान करनेके लिये बाहर गये और उनको वहाँ बहुत देर हो गयी । द्वादशी थोडी ही थी, उसके बाद त्रयोदशी हो जाती थी और शास्त्रोंकी यह आज्ञा है कि एकादशी व्रत करके द्वादशीको पारण करना चाहिये । ब्राह्मणोंकी आज्ञासे इस दोषके परिहारके लिये राजाने एक तुलसीका पत्ता ले लिया। इतने में दुर्वासा ऋषि आ गये और बिना आज्ञा लिये हुए राजाके तुलसीदल ले लेनेपर वे आगबबूला हो गये और उन्होंने क्रोधित हो महाराजको शाप दिया कि 'तुझे जो यह घमंड है कि मैं इसी जन्ममें मुक्त हो जाऊँगा वह मिथ्या है, अभी तुम्हें दस बार और जन्म धारण करने पड़ेंगे।' इतना शाप देनेके बाद उन्होंने एक कृत्या नामक राक्षसीको पैदा किया, जो पैदा होते ही अम्बरीषको खानेके लिये दौड़ी। भक्तकी यह दुर्दशा भगवान्से देखी न गयी, उन्होंने शीघ्र सुदर्शन- चक्रको आज्ञा दी। उसने कृत्याको मारकर दुर्वासा ऋषिका पीछा किया। दुर्वासाजी तीनों लोकोंमें भागते फिरे पर किसीने उन्हें आश्रय नहीं दिया । अन्तमें वे भगवान् विष्णुके पास गये और उनकी
पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/४५६
दिखावट