पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/४६

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४७ विनय-पत्रिका मेघनादसे ब्रह्मास्त्रमें बंधवा लिया था तथा अपनी पूछकी लीलासे अग्निकी धधकती हुई लपटोंसे व्याकुल हुए रावणकी लङ्कामे चारों ओर होली जला दी थी॥ ५॥ तुम्हारी जय हो। तुम श्रीराम-लक्ष्मणको आनन्द देनेवाले, रीछ और बदरोंकी सेना इकट्ठी कर समुद्रपर पुल बाँधनेवाले, देवताओंका कल्याण करनेवाले और सूर्यकुल-केतु श्रीरामजीको संग्राममें विजय लाभ करानेवाले हो ॥ ६॥ तुम्हारी जय हो, जय हो । तुम्हारा शरीर, दॉत, नख और विकराल मुख वज्रके समान है । तुम्हारे भुजदण्ड बडे ही प्रचण्ड हैं, तुम वृक्षों और पर्वतोंको हाथोंपर उठानेवाले हो । तुमने संग्रामरूपी कोल्हूमें राक्षसोंके समूह और बड़े-बड़े योद्धारूपी तिलोंको डाल-डालकर घानीकी तरह पेल डाला ॥ ७॥ तुम्हारी जय हो । रावण, कुम्भकर्ण और मेघनादके नाशमे तुम्हीं कारण हो; कपटी कालनेमिको तुम्हीने मारा था । तुम असम्भवको सम्भव और सम्भवको असम्भव कर दिखलानेवाले और बड़े विकट हो । पृथ्वी, पाताल, समुद्र और आकाश-सभी स्थानोंमें तुम्हारी अबाधित गति है।॥ ८॥ तुम्हारी जय हो । तुम विश्वमें विख्यात हो, वीरताका बाना सदा ही कसे रहते हो। विद्वान् और वेद अपनी विशुद्ध वाणीसे तुम्हारी विरदावलीका वर्णन करते हैं। तुम तुलसीदासके भव-भयको नाश करनेवाले हो और अयोध्यामें सीता- रमण श्रीरामजीके साथ सदा शोभायमान रहते हो॥९॥ [२६] जयति मर्कटाधीश, मृगराज-विक्रम, महादेव, मुद- मंगलालय, कपाली। मोह-मद-क्रोध-कामादि-खल-संकुला, घोर संसार-निशिश किरणमाली ॥१॥