पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/५०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

विनय-पत्रिका राम-विरहार्क-संतप्त-भरतादि-नग्नारि-शीतलकरणकल्पशाणीnen जयति सिंहासनासीन सीतारमण, निरखि निर्भर हरष नृत्यकारी। रामसंभ्राजशोभा-सहित सर्वदातुलसिमानस-रामपुर-विहारी।५। भावार्थ-हे हनुमान्जी ! तुम्हारी जय हो। तुम कल्याणके स्थान, संसारके भारको हरनेवाले, बंढरके आकारमे साक्षात् शिवस्वरूप हो। तुम राक्षसरूपी पतंगोंको भस्म करनेवाली श्रीराम- चन्द्रजीके क्रोधरूपी अग्निकी ज्वालमालाके मूर्तिमान् खरूप हो ॥१॥ तुम्हारी जय हो, तुम पवन और अञ्जनी देवीके आनन्दके स्थान हो । नीची गर्दन किये हुए, दुखी सुग्रीवके दुःखमे तुम सच्चे बन्धुके समान सहायक हुए थे। तुम राक्षसोंके कराल क्रोधरूपी प्रलय. कालकी अग्निका नाश करनेवाले और सिद्ध, देवता तथा सज्जनोंके लिये आनन्दके समुद्र हो ॥ २॥ तुम्हारी जय हो, तुम एकादश रुद्रोंमें और जगत्पूज्य ज्ञानियोंमें अग्रगण्य हो, संसारभरके शूरवीरोंके प्रसिद्ध सम्राट् हो। तुम सामवेदका गान करनेवालोंमें और कामदेवको जीतनेवालोंमें सबसे श्रेष्ठ हो। तुम श्रीरामजीके हितकारी और श्रीराम-भक्तोंके साथ रहनेवाले रक्षक हो ॥ ३ ॥ तुम्हारी जय हो । तुम संग्राममे विजय पानेवाले, श्रीरामजीका सन्देशा (सीताजीके पास) पहुँचानेवाले और अयोध्याका कुशल-मंगल ( श्रीरघुनाथजीसे) कहने- चाले हो। तुम श्रीरामजीके वियोगरूपी सूर्यसे जलते हुए भरत आदि अयोध्यावासी नर-नारियोंका ताप मिटानेके लिये कल्पवृक्ष हो॥४॥ तुम्हारी जय हो। तुम श्रीरामजीको राज्य-सिंहासनपर विराजमान देख, आनन्दमें विह्वल होकर नाचनेवाले हो। जैसे श्रीरामजी