पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/५९

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६० विनय-पत्रिका त्याग दिया ॥ ३ ॥ मैने तो सदाने ही तेरे नागरदा माँगर खाया है, तेरी बलया लेता हूँ, में तो तेरे ही वर मानेर जगत्में उजागर होकर अबतक जीता रहा है।॥१॥ जो तुमने मुिग्न होता तो मेरा दृदय ही उसमे कारण होता, निज परिवारक मनुष्यकी तरह भडी-बुरी सुनाकर तुझे आना मुंह को गिाता! ॥५॥तमेरे मनकी सब कुछ जानता है, क्योंकि तेरे समान ज्ञानकी खानि और सबके मनकी जाननेवाला दुसरा कौन । गहतो में भी समझता हूँ कि खामीके साथ द्रोह करनेवालको नष्ट-भर हो जाना पड़ता हे ॥ ६ ॥ तेरे खामी श्रीरामजी और स्वामिनी श्रीसीताजी. सरीखी हैं, वहाँ तुलसीदासका तेरे सिवा और किस मनुष्यका और किस वस्तुका सहारा है ? इसलिये वही मुझे वहाँतक पहुंचा दे॥ ७॥ [३४] अति आरत. अति खारथी, अति दीन-दुसारी। इनको विलगु न मानिये, योलहिं न विचारी ॥१॥ लोक-रीति देखी सुनी, व्याकुल नर-नारी। अति वरपे अनवरपेह, देहिं देवर्हि गारी ॥२॥ नाकहि आये नाथसों, सॉसति भय भारी। कहि आयो, कीवी उमा, निज ओर निहारी ॥३॥ समै साँकरे सुमिरिये, समरश हितकारी। सो सव विधि ऊबर करै, अपराध विसारी ॥४॥ विगरी सेवककी सदा, साहेबहिं सुधारी। तुलसीपर तेरी कृपा, निरुपाधि निरारी ॥५॥ भावार्थ-हे हनुमानजी ! अति पीड़ित, अति खार्थी, अति दीन