पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/१०६

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६४।१४९-५६ ] ४-पाचित्तिय (ख ) जो कोई भिक्षुणी जानते हुये, इस प्रकार निकाली हुई श्रामणेरीको, सेवामें रक्खे, सहभोजन करे, सह-शय्या करे, उसे पाचित्तिय है। (६३) धार्मिक बातका अस्वीकारना १४९-जो कोई भिक्षुणी, भिक्षुणियोंके धार्मिक बात कहनेपर इस प्रकार कहे-आर्ये ! मैं तब तक इन भिक्षुणी-नियमों (= शिक्षा-पदों )को नहीं सीखूगी जब तक कि दूसरी चतुर विनय-धर' भिक्षुणीको न पूछलू ; उसे पाचित्तिय है । भिक्षुणियो ! सीखनेवाली भिक्षुणियोंको जानना चाहिये, पूछना चाहिये, प्रश्न करना चाहिये-यह उचित है। (६४) प्रातिमोक्ष १५०--जो कोई भिक्षुणी पातिमोक्ख (=प्रातिमोक्ष)को आवृत्ति करते वक्त ऐसा कहे- इन छोटे छोटे शिक्षा-पदोंकी आवृत्तिसे क्या मतलब जो कि सन्देह, पोड़ा और क्षोभ पैदा करने वाले हैं-(इस प्रकार) शिक्षा-पदके विरुद्ध कथन करने में पाचित्तिय है। १५१-जो कोई भिक्षुणी प्रत्येक आधे मास पातिमोक्खकी आवृत्ति करते समय ऐसा कहे-"यह तो मैं आर्ये ! अब जानती हूँ; कि सूत्रोंमें आये, सूत्रों द्वारा अनुमोदित इस धर्मको भी प्रति पन्द्रहवें दिन श्रावृत्ति की जाती है । यदि दूसरी भिक्षुणियाँ उस भिक्षुणीको पूर्वसे बैठी जानें; (और) दो तोन या अधिक बार पातिमोक्खकी आवृत्तिकी जानेपर भी ( उसको वैसेही पायें); तो बेसमझोके कारण वह भिक्षुणी मुक्त नहीं हो सकती । जो कुछ अपराध उसने किया है धर्मानुसार उसका प्रतिकार कराना चाहिये और आगे उसपर मोहका आरोप करना चाहिये-श्रार्थे ! तुझे अलाभ है, तुझे बुरा लाभ हुआ है जो कि पातिमोक्खकी आवृत्ति करते वक्त तू अच्छी तरह दृढ़ कर मनमें धारण नहीं करती। उस मोहके करनेपर ( =मूढ़ताके लिये ) पाचित्तिय है। (६५) मारना, धमकाना १५२-जो कोई भिक्षुणी कुपित, असंतुष्ट हो (दूसरी) भिक्षुणीको पीटती है, पाचित्तिय है। १५३-जो कोई भिक्षुणी कुपित, असंतुष्ट हो (दूसरी) भिक्षुणीको ( मारनेका श्राकार दिखलाते हुए ) धमकाये, उसे पाचित्तिय है। (६६ ) संघादिसेसका दोषारोप १५४–जो कोई भिक्षुणी (दूसरी) भिक्षुणीपर निर्मूल संघादिग्मेस ( दोप )का लांछन लगाये, उसे पाचित्तिय है (६७) भिक्षुणीशो दिक करना १५५-जो कोई भिजणी (दूसरी) भिक्षुणोको, दूसरे नहीं सिर्फ इसी मतलबसे कि इसको जण भर देनी होगो ; जान वृभाकर संदेह उत्पन्न कर, उसे पानिनिय है । १५६-जो कोई भिजणी दुसरं नहीं सिर्फ इसो मतलबसे कि जो कुछ यह कहेंगी उसे . । दिनपिटक जिन वंटन्य है ।