८० ] महावग्ग [ १९१६ २-वाराणसी तव भगवान् क्रमशः यात्रा करते हुए, जहाँ वा रा ण सीमें ऋ पि - प त न मृगदाव था, जहाँ पञ्चवर्गीय भिक्षु थे, वहाँ पहुँचे । पञ्चवर्गीय भिक्षुओंने भगवान्को, दूरसे आते हुए देखा। देखते ही आपसमें पक्का किया- "आवुसो! साधना-भ्रष्ट जोळू बटोरू श्रमण गौतम आ रहा है। इसे अभिवादन नहीं करना चाहिये और न प्रत्युत्थान (=सत्कारार्थ खळा होना) करना चाहिये। न इसका पात्र-चीवर (आगे बढ़कर) लेना चाहिये । केवल आसन रख देना चाहिये, यदि इच्छा होगी तो बैठेगा।" जैसे जैसे भगवान् पञ्चवर्गीय भिक्षुओंके समीप आते गये, वैसेही वैसे वह....अपनी प्रतिज्ञापर स्थिर न रह सके। (अन्तमें) भगवान्के पास जानेपर एकने भगवान्का पात्र-चीवर लिया, एकने आसन विछाया; एकने पादोदक (=पैर धोनेका जल), पादपीठ (=पैरका पीढ़ा) और पादकठलिका (=पैर रंगळनेकी लकळी) ला पास रक्खी । भगवान् विछाये आसनपर बैठे । बैठकर भगवान्ने पैर धोये । (उस समय) वह (लोग) भगवान्के लिये 'आवुस' शब्दका प्रयोग करते थे। ऐसा करनेपर भगवान्ने कहा- "भिक्षुओ ! तथागतको नाम लेकर या 'आवुस' कहकर मत पुकारो। भिक्षुओ ! तथागत अर्हत् सम्यक्- सम्बुद्ध हैं। इधर कान दो, मैंने जिस अमृतको पाया है, उसका तुम्हें उपदेश करता हूँ । उपदेशानुसार आचरण करनेपर, जिसके लिये कुलपुत्र घरसे वेघर हो सन्यासी होते हैं, उस अनुपम ब्रह्मचर्यफलको, इसी जन्ममें शीघ्र ही स्वयं जानकर-साक्षात्कारकर-लाभकर विचरोगे।" “ऐसा कहनेपर पञ्चवर्गीय भिक्षुओंने भगवान्से कहा—'आवुस ! गौतम ! उस साधना- में, उस धारणामें और उस दुष्कर तपस्यामें भी तुम आर्योंके ज्ञानदर्शनकी पराकाष्ठाकी विशेषता, उत्तरमनुष्य- धर्म (=दिव्य शक्ति) को नहीं पा सके; फिर अब साधनाभ्रप्ट, जोळू-बटोरू हो तुम आर्य-ज्ञान-दर्शनकी पराकाष्ठा, उत्तर-मनुष्य-धर्मको क्या पाओगे।" यह कहनेपर भगवान्ने पञ्चवर्गीय भिक्षुओंसे कहा -"भिक्षुओ ! तथागत जोळू-बटोरू नहीं हैं, और न साधनासे भ्रष्ट हैं, । भिक्षुओ! तथागत अर्हत् सम्यक् संबुद्ध हैं ० । ० लाभकर विहार करोगे। दूसरी बार भी पञ्च वर्गीय भिक्षुओंने.भगवान्से कहा-"आवुस ! गौतम०" दूसरी बार भी भगवान्ने फिर (वही) कहा० । तीसरी बार भी पञ्चवर्गीय भिक्षुओंने भगवान्से (वही) कहा ० । ऐसा कहनेपर भगवान्ने पञ्चवर्गीय भिक्षुओंसे कहा--भिक्षुओ! इससे पहिले भी क्या मैंने कभी इस प्रकार वात की है ?" "भन्ते ! नहीं" "भिक्षुओ! तथागत अर्हत्० विहार करोगे ।" तव भगवान् पञ्चवर्गीय भिक्षुओंको समझानेमें समर्थ हुए; और पञ्चवर्गीय भिक्षुओंने भग- वान्के (उपदेश) सुननेकी इच्छासे कान दिया, चित्त उधर किया।..... १ "भिक्षुओ! साधुको यह दो अतियां सेवन नहीं करनी चाहिये। कौनसी दो? (१) जो यह हीन, ग्राम्य, अनाळी मनुष्योंके (योग्य), अनार्य (-सेवित), अनर्थोसे युक्त, कामवासनाओंमें लिप्त होना है; और (२) जो दुःख (-मय), अनार्य (-सेवित) अनर्थोसे युक्त आत्म-पीळामें लगना है। भिक्षुओ ! इन दोनों ही अतियोंमें न जाकर, तथागतने मध्यम-मार्ग खोज निकाला है, (जोकि) १ देखो, संयुत्त नि० ५५ : २:१
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