! १७१।६ ] बुद्धकी प्रथम यात्रा [ ७९ (६) धर्म चक्र प्रवर्तन तव ब्रह्मा सहापति-'भगवान्ने धर्मोपदेशके लिये मेरी बात मानली' यह जान, भगवान्को, अभिवादनकर प्रदक्षिणाकर वहीं अन्तर्धान होगये । उस समय भगवान्के (मनमें) हुआ-"मैं पहिले किसे इस धर्मकी देशना (=उपदेश) करूँ इस धर्मको शीघ्र कौन जानेगा?" फिर भगवान्के (मनमें) हुआ-"यह आ ला र - का ला म पण्डित, चतुर मेधावी चिरकालसे निर्मल-चित्त है, मैं पहिले क्यों न आलार-कालामको ही धर्मोपदेश दूं? वह इस धर्मको शीघ्र ही जान लेगा।" तब (गुप्त) देवताने भगवान्से कहा-“भन्ते ! आलार-कालामको मरे एक सप्ताह हो गया।" भगवान्को भी ज्ञान-दर्शन हुआ—“आलार-कालामको मरे एक सप्ताह हो गया।" तब भगवान्के (मनमें) हुआ-"आलार-कालाम महा-आजानीय था, यदि वह इस धर्मको सुनता, शीघ्र ही जान लेता।" फिर भगवान्के (मनमें) हुआ—“यह उ द्द क-रा म पुत्त पण्डित, चतुर, मेधावी, चिरकालसे निर्मल चित्त है, क्यों न मैं पहिले उद्दक-रामपुत्तको ही धर्मोपदेश करूँ ? वह इस धर्म- को शीघ्र ही जान लेगा।" तब (गुप्त=अन्तर्धान) देवताने आकर कहा-“भन्ते ! रात ही उद्दक- रामपुत्त मर गया।" भगवान्को भी ज्ञान-दर्शन हुआ।....। फिर भगवान्के (मनमें) हुआ—“पञ्च - वर्गीय भिक्षु मेरे बहुत काम करनेवाले थे, उन्होंने साधनामें लगे मेरी सेवा की थी। क्यों न मैं पहिले पञ्चवर्गीय भिक्षुओंको ही धर्मोपदेश हूँ।" भगवान्ने सोचा-"इस समय पञ्चवर्गीय भिक्षु कहाँ विहर रहे हैं ?" भगवान्ने अ-मानुष विशुद्ध दिव्य नेत्रोंसे देखा-“पञ्चवर्गीय भिक्षु वा रा ण सी के ऋ पि- पत न मृगदावमें विहारकर रहे हैं।" तब भगवान् उ रु वे ला में इच्छानुसार विहारकर, जिधर वाराणसी है, उधर चारिका (= रामत) के लिये निकल पड़े। उ प क आ जी व क ने भगवान् को वो धि (=वोध गया) और गयाके बीचमें जाते देखा । देखकर भगवान्से बोला-"आयुष्मान् (आवुस) ! तेरी इन्द्रियाँ प्रसन्न हैं, तेरी कांति परिशुद्ध तथा उज्वल है। किसको (गुरु) मानकर, हे आवुस ! तू प्रबजित हुआ है ? तेरा गुरु कौन है ? तू किसके धर्मको मानता है ?" यह कहनेपर भगवान्ने उपक आजीवकसे गाथामें कहा- "मैं सवको पराजित करनेवाला, सवको जाननेवाला हूँ; सभी धर्मोमें निलेप हूँ। सर्व-त्यागी (हूँ), तृप्णाके क्षयसे मुक्त हूँ; मैं अपनेही जानकर उपदेश करूँगा। मेरा आचार्य नहीं है मेरे सदृश (कोई) विद्यमान नहीं। देवताओं सहित (सारे) लोकमें मेरे समान पुरुप नहीं । मैं संसारमें अर्हत् हूँ, अपूर्व उपदेशक हूँ। मैं एक सम्यक् संवृद्ध, शान्ति तथा निर्वाणको प्राप्त हूँ। धर्मका चक्का घुमानेके लिये का शि यों के नगरको जा रहा हूँ। (वहाँ) अन्धे लोकमें अमृत-दुन्दुभी वजाऊँगा ॥" "आयुष्मान् ! तू जैसा दावा करता है उससे तो अनन्त जि न हो सकता है।" "मेरे ऐसे ही आदमी जिन होते हैं, जिनके कि चित्तमल (आत्रव) नष्ट हो गये हैं। मैने दुराइयोंको जीत लिया है, इसलिये हे उपक ! मैं जिन हूँ।" ऐसा कहनेपर उपक. आजीवकः-"होबोगे आवुस !" कह, गिर हिला, देगन्ने चला गया। २ दर्तमान सारनाथ, बनारस । गोराम इनका एक प्रधान आचार्य था। उस समयके नंगे साधुओं का एक सम्प्रदाय था। मादली-
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