१०१।१२ ] उपसम्पदा-कथा [ ८७ आयुष्मानोंकी उपसम्पदा हुई । तव भगवान्ने.. उपदेश दिया।... .(जिससे) अलिप्त हो उनके चित्त आस्रवोंसे मुक्त हो गये। उस समय लोकमें एकसठ अर्हत् थे। भगवान्ने भिक्षुओंको सम्बोधित किया- "भिक्षुओ! जितने (भी) दिव्य और मानुष बन्धन हैं, मैं (उन सबों) से मुक्त हूँ, तुम भी दिव्य और मानुष बंधनोंसे मुक्त हो। भिक्षुओ ! बहुत जनोंके हितके लिये, बहुत जनोंके सुखके लिये, लोकपर दया करनेके लिये, देवताओं और मनुष्योंके प्रयोजनके लिये, हितके लिये, सुखके लिये विचरण करो। एकसाथ दो मत जाओ। हे भिक्षुओ! आदिमें कल्याण-(कारक) मध्यमें कल्याण (-कारक) अन्तमें कल्याण (-कारक) (इस) धर्मका उपदेश करो । अर्थ सहितः व्यंजन-सहित, केवल (=अमिश्र) परिपूर्ण परिशुद्ध ब्रह्मचर्यका प्रकाश करो। अल्प दोषवाले प्राणी (भी) हैं, धर्मके न श्रवण करनेसे उनकी हानि होगी। (सुननेसे वह) धर्मके जाननेवाले बनेंगे। भिक्षुओ ! मैं भी जहाँ उ रु वे ला है, जहाँ से ना नी ग्राम वहाँ धर्म-देशनाके लिये जाऊँगा' 1) 2 (११) मार कथा तव पापी मार जहाँ भगवान् थे वहाँ गया। जाकर भगवान्से गाथाओंमें बोला- "जितने दिव्य और मानुष वन्धन हैं, उनसे तुम बँधे हो। हे श्रमण ! मेरे इन महावन्धनोंसे बँधे तुम नहीं छूट सकते ॥" (भगवान्ने कहा)- "जितने दिव्य मानुष बन्धन हैं उनसे मैं मुक्त हूँ । हे अन्तक! महावन्धनोंसे मैं मुक्त हूँ, तू ही बरवाद है।" (मारने कहा)- " (राग रूपी) आकाशचारी मनका जो वन्धन है। हे श्रमण ! मैं तुम्हें उससे वाँधूंगा, मुझसे तुम छूट नहीं सकते॥" (भगवान्ने कहा)- "(जो) मनोरम रूप, शब्द, रस, गन्ध और स्पर्श (हैं)। उनसे मेरा राग दूर हो गया, इसलिये अन्तक ! तुम वरवाद हुए ॥" तव पापी मारने कहा-मुझे भगवान् जानते हैं, मुझे सुगत पहचानते हैं- (कह) दुखी दुर्मना हो वहीं अन्तर्धान हो गया मार-कथा समाप्त ॥११॥ (१२) उपसम्पदा-कथा उन समय भिक्षु नाना दिशाओंसे नाना देशोंसे प्रव्रज्याकी इच्छावाले, उपसम्पदाकी अपेक्षावाले (आदमियोंको) लाते थे, कि भगवान् उन्हें प्रजित करें, उपसम्पन्न करें । इससे भिक्षु भी परेशान होते थे, प्रव्रज्या-उपसम्पदा चाहनेवाले भी । एकान्तस्थित ध्यानावस्थित भगवान्के चित्तमें (विचार) हुआ-"क्यों न भिक्षुओंको ही अनुमति दे दूं, कि भिक्षुओ! तुम्हीं उन उन दिशाओंमें, उन उन देशोंमें (जाकर) प्रव्रज्या दो, उपसम्पदा करो।" तव भगवान्ने सन्ध्या समय भिक्षु-संघको एकत्रितकर धर्मकथा कह, सम्बोधित किया- "भिक्षुओ! एकान्तमें स्थित, ध्यानावस्थित० । "भिक्षुओ! अनुमति देता हूँ तुम्हें ही उन उन दिशाओंमें, उन उन देशोंमें प्रव्रज्या देनेकी, उपसम्पदा देनेकी । ।
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