! ८८ ] महावग्ग [ १९२।१३ "और उपसम्पदा देनेका प्रकार यह है--पहिले शिर दाढ़ी मुंळवा, कापाय-वस्त्र पहना, उप- रना एक कन्धेपर करा, भिक्षुओंकी पाद-वंदना करा, उकळू बैठा, हाथ जोळवाकर "ऐसे बोलो" कहना चाहिये--"बुद्धकी शरण जाता हूँ, धर्मकी शरण जाता हूँ, संघकी शरण जाता हूँ। दूसरी बार भी बुद्ध धर्म० संघकी शरण जाता हूँ। तीसरी बार भी बुद्ध०, धर्म० संघकी शरण जाता है। इन तीन शरणा- गमनोंसे प्रव्रज्या और उपसम्पदा (देनेकी) अनुमति देता हूँ।" तव भगवान्ने वर्षावास कर भिक्षुओंको सम्बोधित किया--भिक्षुओ ! मैंने मूलसे मनमें (विचार) करके, मूलसे ठीक प्रधान (=मोक्षकी साधना) करके अनुपम मुक्तिको पाया, अनुपम मुक्तिका साक्षात्कार किया । तुमने भी भिक्षुओ ! मूलसे मनमें (विचार) करके., मूलसे ठीक प्र वा न करके अनुपम मुक्तिको पाया, अनुपम मुक्तिका साक्षात्कार किया।" तव पापी मार, जहाँ भगवान् थे, वहाँ गया। जाकर भगवान्से गाथाओंमें बोला- "जो दिव्य और मानुष मारके बंधन हैं उनसे (तुम) बँधे हो । श्रमण मारके बन्धनसे बँधे हो, मुझसे मुक्त नहीं हो सकते ॥" (भगवान्ने कहा)- "जो दिव्य और मानुष मारके बंधन हैं उनसे मैं मुक्त हूँ । मैं मारके बन्धनसे मुक्त हूँ, अन्तक! तुम वरवाद हो ॥" तब पापी मार - "मुझे भगवान् जानते हैं, मुझे सुगत पहचानते ह"-(कह) दुःखी दुर्मना हो वहीं अन्तर्धान हो गया। (१३) भद्रवर्गीय कथा भगवान् वाराणसीमें इच्छानुसार विहारकर, (साठ भिक्षुओंको भिन्न भिन्न दिशाओंमें भेज), जिधर उ रु वे ला है, उधर चारिका (=विचरण) के लिये चल दिये। भगवान् मार्गसे हटकर एक बन खण्डमें पहुँच, वन-खण्डके भीतर एक वृक्षके नीचे जा बैठे। उस समय भ द्र व र्गी य (नामक) तीस मित्र, अपनी स्त्रियों सहित उसी वन-खण्डमें विनोद करते थे। (उनमें) एककी पत्नी न थी। उसके लिये वेश्या लाई गई थी। वह वेश्या उनके नशामें हो घूमते वक्त, आभूषण आदि लेकर भाग गई। तब (सव) मित्रोंने (अपने) मित्रकी मददमें उस स्त्रीको खोजते, उस वन-खण्डको हीळते, वृक्षके नीचे बैठे भगवान्को देखा। (फिर) जहाँ भगवान् थे, वहाँ गये । जाकर भगवान्से बोले-“भन्ते! भग- वान्ने (किसी) स्त्रीको तो नहीं देखा ?" "कुमारो! तुम्हें स्त्रीसे क्या है ?" "भन्ते ! हम भद्रवर्गीय तीस मित्र (अपनी अपनी) पत्नियों सहित इस वन-खण्डमें सैर विनोद कर रहे थे। एककी पत्नी न थी, उसके लिये वेश्या लाई गई थी। भन्ते ! वह वेश्या हमलोगोंके नशामें हो घूमते वक्त आभूपण आदि लेकर भाग गई। सो भन्ते ! हमलोग मित्रकी मददमें उस स्त्रीको खोजते हुए, इस वन-खण्डको हीळ रहे हैं।" "तो कुमारो! क्या समझते हो, तुम्हारे लिये कौन उत्तम होगा; यदि तुम स्त्रीको ढूंढो, या तुम अपने (आत्मा) को ढूंढो।" "भन्ते! हमारे लिये यही उत्तम है, यदि हम अपने को ढूंढें ।" "तो कुमारो! बैठो, मैं तुम्हें धर्म-उपदेश करता हूँ।" "अच्छा, भन्ते !" कह, वह भ द्र वर्गी य मित्र भगवान्को वन्दना कर, एक ओर बैठगये । —
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