पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/१३९

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९४ ] ३-महावग्ग [ ??१६ भगवान्के पाससे मुझे प्रव्रज्या मिले, उपसम्पदा मिले।" "काश्यप ! तू पाँच सौ जटिलोंका नायक....है । उनको भी देख...." तब उरुवेल काश्यप जटिलने....जाकर; उन जटिलोंसे कहा-"मैं महाश्रमणके पास ब्रह्मचर्य- ग्रहण करना चाहता हूँ; तुमलोंगोंकी जो इच्छा हो सो करो।" "पहलेहीसे ! हम महाश्रमणमें अनुरक्त हैं, यदि आप महाश्रमणके शिष्य होंगे, (तो) हम सभी महाश्रमणके शिप्य बनेंगे'। वह सभी जटिल केश-सामग्री, जटा-सामग्री, खारी और बीकी सामग्री, अग्निहोत्र-सामग्री (आदि अपने सामानको) जलमें प्रवाहितकर, भगवान्के पास गये। जाकर भगवान्के चरणोंपर शिर झुका वोले--“भन्ते ! हम भगवान्के पास प्रव्रज्या पावें, उपसम्पदा पावें।" "भिक्षुओ! आओ धर्म सु-व्याख्यात है, भली प्रकार दुःखके अन्त करनेके लिये ब्रह्मचर्य पालन करो।" यही उन आयुष्मानोंकी उपसंपदा हुई । न दी का श्य प जटिलने केश-सामग्री, जटा-सामग्री, खारी और घीकी सामग्री, अग्निहोत्र-सामग्री नदीमें बहती हुई देखी। देखकर उसको हुआ--"अरे ! मेरे भाईको कुछ अनिष्ट तो नहीं हुआ है," (और) जटिलोंको--"जाओ, मेरे भाईको देखो तो" (कह,) स्वयं भी तीन सौ जटिलोंको साथ ले, जहाँ आयुष्मान् उरुवेल-काश्यप थे, वहाँ गया; और जाकर बोला-"काश्यप ! क्या यह अच्छा है ?" "हाँ, आवुस ! यह अच्छा है ।" तव वह जटिल भी केश-सामग्री....जलमें प्रवाहितकर, जहाँ भगवान् थे वहाँ गये। जाकर.... बोले--"भन्ते ! ....उपसम्पदा पावें।".....वही उन आयुष्मानोंकी उपसम्पदा हुई । ग या का श्य प जटिलने केश-सामग्री नदीमें बहती देखी।....' ."काश्यप ! क्या यह अच्छा है ?" "हाँ ! आवुस ! यह अच्छा है ।" यही उन आयुष्मानोंकी उपसम्पदा हुई । -गया २ तव भगवान् उ रु वे ला में इच्छानुसार विहारकर, सभी एकसहस्र पुराने जटिल भिक्षुओंके महाभिक्षु-संघके साथ ग या सी स गये । (१६) गयासीस पर आदीप्त पर्यायका उपदेश वहाँ भगवान् एक हजार भिक्षुओंके साथ ग या ग या - सी स प र विहार करते थे। वहाँ भगवान्ने भिक्षुओंको आमन्त्रित किया--"भिक्षुओ! सभी जल (= नष्ट हो) रहा है। क्या जल रहा है ? चक्ष जल रही है, रूप जल रहा है, चक्षुका विज्ञान जल रहा चक्षुका सं स्पर्श जल रहा है, और चक्षुके संस्पर्शके कारण जो वेदनायें--सुख, दुःख, न-सुख-न-दुःख-उत्पन्न होती हैं, वह भी जल रही हैं ?--राग-अग्निसे, द्वेप-अग्निसे, मोह-अग्निसे जल रहा है । जन्म, जरासे, और मरणके योगसे, रोने- पीटनेसे, दुःखसे, दुर्मनस्कतासे, परेशानीसे जल रही हैं-यह मैं कहता हूँ। "श्रोत्र० । ०शब्द० । ०श्रोत्र-विज्ञान । ०श्रोत्रका-संस्पर्श । ०श्रोत्रके संस्पर्शके कारण (उत्पन्न) वेदनायें । घ्राण (=नासिका-इन्द्रिय)....गंध....प्राण-विज्ञान जल रहे हैं। घ्राणका संस्पर्श १ खरिया, झोली। गयासीस-गयाका ब्रह्मयोनि पर्वत है। ३ इन्द्रिय और विषयके सम्वन्धसे जो ज्ञान होता है।